Wednesday, 11 December 2019

।। श्रीअन्नपूर्णास्तोत्रम्।।

हरि:ॐ

अपरनाम अन्नपूर्णाष्टकम् ॥

नित्यानन्दकरी वराभयकरी सौन्दर्यरत्नाकरी
निर्धूताखिलघोरपावनकरी प्रत्यक्षमाहेश्वरी ।   घोरपापनिकरीप्रालेयाचलवंशपावनकरी  काशीपुराधीश्वरी
भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी माताऽन्नपूर्णेश्वरी ॥ १॥

नानारत्नविचित्रभूषणकरी हेमाम्बराडम्बरी
मुक्ताहारविलम्बमान विलसत् वक्षोजकुम्भान्तरी ।
काश्मीरागरुवासिता रुचिकरी काशीपुराधीश्वरी
भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी माताऽन्नपूर्णेश्वरी ॥ २॥

योगानन्दकरी रिपुक्षयकरी धर्मार्थनिष्ठाकरी
चन्द्रार्कानलभासमानलहरी त्रैलोक्यरक्षाकरी ।
सर्वैश्वर्यसमस्तवाञ्छितकरी काशीपुराधीश्वरी
भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी माताऽन्नपूर्णेश्वरी ॥ ३॥

कैलासाचलकन्दरालयकरी गौरी उमा शङ्करी
कौमारी निगमार्थगोचरकरी ओङ्कारबीजाक्षरी ।
मोक्षद्वारकपाटपाटनकरी काशीपुराधीश्वरी
भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी माताऽन्नपूर्णेश्वरी ॥ ४॥

दृश्यादृश्य विभूतिवाहनकरी ब्रह्माण्डभाण्डोदरी
लीलानाटकसूत्रभेदनकरी विज्ञानदीपाङ्कुरी ।
श्रीविश्वेशमनः प्रसादनकरी काशीपुराधीश्वरी
भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी माताऽन्नपूर्णेश्वरी ॥ ५॥

उर्वी सर्वजनेश्वरी भगवती माताऽन्नपूर्णेश्वरी
वेणीनीलसमानकुन्तलधरी नित्यान्नदानेश्वरी ।
सर्वानन्दकरी सदाशुभकरी काशीपुराधीश्वरी
भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी माताऽन्नपूर्णेश्वरी ॥ ६॥

आदिक्षान्तसमस्तवर्णनकरी शम्भोस्त्रिभावाकरी
काश्मीरा त्रिजलेश्वरी त्रिलहरी नित्याङ्कुरा शर्वरी ।
कामाकाङ्क्षकरी जनोदयकरी काशीपुराधीश्वरी
भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी माताऽन्नपूर्णेश्वरी ॥ ७॥

देवी सर्वविचित्ररत्नरचिता दाक्षायणी सुन्दरी
वामे स्वादुपयोधरा प्रियकरी सौभाग्य माहेश्वरी ।
भक्ताभीष्टकरी सदाशुभकरी काशीपुराधीश्वरी
भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी माताऽन्नपूर्णेश्वरी ॥ ८॥

चन्द्रार्कानलकोटिकोटिसदृशा चन्द्रांशुबिम्बाधरी
चन्द्रार्काग्निसमानकुण्डलधरी चन्द्रार्कवर्णेश्वरी ।
मालापुस्तकपाशसाङ्कुशधरी काशीपुराधीश्वरी
भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी माताऽन्नपूर्णेश्वरी ॥ ९॥

क्षत्रत्राणकरी महाऽभयकरी माता कृपासागरी
साक्षान्मोक्षकरी सदा शिवकरी विश्वेश्वरी श्रीधरी ।
दक्षाक्रन्दकरी निरामयकरी काशीपुराधीश्वरी
भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी माताऽन्नपूर्णेश्वरी ॥ १०॥

अन्नपूर्णे सदापूर्णे शङ्करप्राणवल्लभे ।
ज्ञानवैराग्यसिद्ध्यर्थं भिक्षां देहि च पार्वति ॥ ११॥

माता मे पार्वती देवी पिता देवो महेश्वरः ।
बान्धवाः शिवभक्ताश्च स्वदेशो भुवनत्रयम् ॥ १२॥

।। इति श्रीशङ्करभगवतः कृतौ अन्नपूर्णास्तोत्रं सम्पूर्णम्।।

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भगवति भवरोगात्पीडितं दुष्कृतोत्वात्
सुतदुहितृकलत्रोपद्रवेणानुयातम् ।
विलसदमृतदृष्ट्या वीक्ष्य विभ्रान्तचित्तं
सकलभुवनमातस्त्राहि मामो नमस्ते ॥ ११॥

माहेश्वरीमाश्रितकल्पवल्लीमहम्भवोच्छेदकरी भवानीम् ।
क्षुधार्तजायातनयाद्युपेतस्त्वामन्नपूर्णे शरणं प्रपद्ये ॥ १२॥

दारिद्र्यदावानलदह्यमानं पाह्यन्नपूर्णे गिरिराजकन्ये ।
कृपाम्बुधौ मज्जय मां त्वदीये त्वत्पादपद्मार्पितचित्तवृत्तिम् ॥ १३॥

Tuesday, 10 December 2019

॥ श्रीदत्त अथर्वशीर्ष ॥

         ॥ हरिः ॐ ॥
GrahRaj  Astrology

ॐ नमो भगवते दत्तात्रेयाय अवधूताय
दिगंबरायविधिहरिहराय आदितत्त्वाय आदिशक्तये ॥ १॥

त्वं चराचरात्मकः सर्वव्यापी सर्वसाक्षी
त्वं दिक्कालातीतः त्वं द्वन्द्वातीतः ॥ २॥

त्वं विश्वात्मकः त्वं विश्वाधारः विश्वेशः
विश्वनाथः त्वं विश्वनाटकसूत्रधारः
त्वमेव केवलं कर्तासि त्वं अकर्तासि च नित्यम् ॥ ३॥

त्वं आनन्दमयः ध्यानगम्यः त्वं आत्मानन्दः
त्वं परमानन्दः त्वं सच्चिदानन्दः
त्वमेव चैतन्यः चैतन्यदत्तात्रेयः
ॐ चैतन्यदत्तात्रेयाय नमः ॥ ४॥
GrahRaj  Astrology
त्वं भक्तवत्सलः भक्ततारकः भक्तरक्षकः
दयाघनः भजनप्रियः त्वं पतितपावनः
करुणाकरः भवभयहरः ॥ ५॥

त्वं भक्तकारणसंभूतः अत्रिसुतः अनसूयात्मजः
त्वं श्रीपादश्रीवल्लभः त्वं गाणगग्रामनिवासी
श्रीमन्नृसिंहसरस्वती त्वं श्रीनृसिंहभानः
अक्कलकोटनिवासी श्रीस्वामीसमर्थः
त्वं करवीरनिवासी परमसद्गुरु श्रीकृष्णसरस्वती
त्वं श्रीसद्गुरु माधवसरस्वती ॥ ६॥

त्वं स्मर्तृगामी श्रीगुरूदत्तः शरणागतोऽस्मि त्वाम् ।
दीने आर्ते मयि दयां कुरु
तव एकमात्रदृष्टिक्षेपः दुरितक्षयकारकः ।
हे भगवन्, वरददत्तात्रेय,
मामुद्धर, मामुद्धर, मामुद्धर इति प्रार्थयामि ।
ॐ द्रां दत्तात्रेयाय नमः ॥ ७॥

॥ ॐ दिगंबराय विद्महे अवधूताय धीमहि तन्नो दत्तः प्रचोदयात् ॥

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Sunday, 8 December 2019

॥ प्रदोषस्तोत्रम् ॥

श्री गणेशाय नमः ।

जय देव जगन्नाथ जय शङ्कर शाश्वत ।
जय सर्वसुराध्यक्ष जय सर्वसुरार्चित ॥ १॥

जय सर्वगुणातीत जय सर्ववरप्रद ।
जय नित्य निराधार जय विश्वम्भराव्यय ॥ २॥

जय विश्वैकवन्द्येश जय नागेन्द्रभूषण ।
जय गौरीपते शम्भो जय चन्द्रार्धशेखर ॥ ३॥

जय कोट्यर्कसङ्काश जयानन्तगुणाश्रय ।
जय भद्र विरूपाक्ष जयाचिन्त्य निरञ्जन ॥ ४॥

जय नाथ कृपासिन्धो जय भक्तार्तिभञ्जन ।
जय दुस्तरसंसारसागरोत्तारण प्रभो ॥ ५॥

प्रसीद मे महादेव संसारार्तस्य खिद्यतः ।
सर्वपापक्षयं कृत्वा रक्ष मां परमेश्वर ॥ ६॥

महादारिद्र्यमग्नस्य महापापहतस्य च ।
महाशोकनिविष्टस्य महारोगातुरस्य च ॥ ७॥

ऋणभारपरीतस्य दह्यमानस्य कर्मभिः ।
ग्रहैः प्रपीड्यमानस्य प्रसीद मम शङ्कर ॥ ८॥

दरिद्रः प्रार्थयेद्देवं प्रदोषे गिरिजापतिम् ।
अर्थाढ्यो वाऽथ राजा वा प्रार्थयेद्देवमीश्वरम् ॥ ९॥

दीर्घमायुः सदारोग्यं कोशवृद्धिर्बलोन्नतिः ।
ममास्तु नित्यमानन्दः प्रसादात्तव शङ्कर ॥ १०॥

शत्रवः संक्षयं यान्तु प्रसीदन्तु मम प्रजाः ।
नश्यन्तु दस्यवो राष्ट्रे जनाः सन्तु निरापदः ॥ ११॥

दुर्भिक्षमरिसन्तापाः शमं यान्तु महीतले ।
सर्वसस्यसमृद्धिश्च भूयात्सुखमया दिशः ॥ १२॥

एवमाराधयेद्देवं पूजान्ते गिरिजापतिम् ।
ब्राह्मणान्भोजयेत् पश्चाद्दक्षिणाभिश्च पूजयेत् ॥ १३॥

सर्वपापक्षयकरी सर्वरोगनिवारणी ।
शिवपूजा मयाऽऽख्याता सर्वाभीष्टफलप्रदा ॥ १४॥

॥ इति प्रदोषस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

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Monday, 18 November 2019

।।कालभैरवाष्टकं।।

भं भैरवाय नमः

श्रीकालभैरवाष्टकं

देवराजसेव्यमानपावनांघ्रिपङ्कजं व्यालयज्ञसूत्रमिन्दुशेखरं कृपाकरम् । 
बिन्दु नारदादियोगिवृन्दवन्दितं दिगंबरं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ १॥

भानुकोटिभास्वरं भवाब्धितारकं परं नीलकण्ठमीप्सितार्थदायकं त्रिलोचनम् । कालकालमंबुजाक्षमक्षशूलमक्षरं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ २॥

शूलटंकपाशदण्डपाणिमादिकारणं श्यामकायमादिदेवमक्षरं निरामयम् ।
भीमविक्रमं प्रभुं विचित्रताण्डवप्रियं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ ३॥

भुक्तिमुक्तिदायकं प्रशस्तचारुविग्रहं
भक्तवत्सलं स्थितं समस्तलोकविग्रहम् ।
स्थिरम्विनिक्वणन्मनोज्ञहेमकिङ्किणीलसत्कटिं  निक्वणन्
काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ ४॥

धर्मसेतुपालकं त्वधर्ममार्गनाशकं नाशनं कर्मपाशमोचकं सुशर्मदायकं विभुम् ।
स्वर्णवर्णशेषपाशशोभितांगमण्डलं  केशपाश, निर्मलं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ ५॥

रत्नपादुकाप्रभाभिरामपादयुग्मकं नित्यमद्वितीयमिष्टदैवतं निरंजनम् । मृत्युदर्पनाशनं करालदंष्ट्रमोक्षदं भूषणं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ ६॥

अट्टहासभिन्नपद्मजाण्डकोशसंततिं दृष्टिपातनष्टपापजालमुग्रशासनम् । अष्टसिद्धिदायकं कपालमालिकाधरं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ ७॥

भूतसंघनायकं विशालकीर्तिदायकं काशिवासलोकपुण्यपापशोधकं विभुम् । काशिवासि नीतिमार्गकोविदं पुरातनं जगत्पतिं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ ८॥

॥ फल श्रुति ॥

कालभैरवाष्टकं पठंति ये मनोहरं ज्ञानमुक्तिसाधनं विचित्रपुण्यवर्धनम् । शोकमोहदैन्यलोभकोपतापनाशनं लोभदैन्य प्रयान्ति कालभैरवांघ्रिसन्निधिं नरा ध्रुवम् ॥ 

ते प्रयान्ति कालभैरवांघ्रिसन्निधिं ध्रुवम् ॥

॥ इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचर्यस्य श्रीगोविन्दभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य श्रीमच्छङ्करभगवतः कृतौ श्री कालभैरवाष्टकं सम्पूर्णम् ॥

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Sunday, 10 November 2019

मणिकर्णिकाष्टकम्

     मणिकर्णिकाष्टकम्

हर हर महादेव हर हर महादेव

त्वत्तीरे मणिकर्णिके हरिहरौ सायुज्यमुक्तिप्रदौ
वादन्तौ कुरुतः परस्परमुभौ जन्तोः प्रयाणोत्सवे ।
मद्रूपो मनुजोऽयमस्तु हरिणा प्रोक्तः शिवस्तत्क्षणात्
तन्मध्याद्भृगुलाञ्छनो गरुडगः पीताम्बरो निर्गतः ॥ १॥

इन्द्राद्यास्त्रिदशाः पतन्ति नियतं भोगक्षये ये पुन
र्जायन्ते मनुजास्ततोपि पशवः कीटाः पतङ्गादयः ।
ये मातर्मणिकर्णिके तव जले मज्जन्ति निष्कल्मषाः
सायुज्येऽपि किरीटकौस्तुभधरा नारायणाः स्युर्नराः ॥ २॥

काशी धन्यतमा विमुक्तनगरी सालंकृता गङ्गया
तत्रेयं मणिकर्णिका सुखकरी मुक्तिर्हि तत्किंकरी ।
स्वर्लोकस्तुलितः सहैव विबुधैः काश्या समं ब्रह्मणा
काशी क्षोणितले स्थिता गुरुतरा स्वर्गो लघुत्वं गतः ॥ ३॥

गङ्गातीरमनुत्तमं हि सकलं तत्रापि काश्युत्तमा
तस्यां सा मणिकर्णिकोत्तमतमा येत्रेश्वरो मुक्तिदः ।
देवानामपि दुर्लभं स्थलमिदं पापौघनाशक्षमं
पूर्वोपार्जितपुण्यपुञ्जगमकं पुण्यैर्जनैः प्राप्यते ॥ ४॥

दुःखाम्भोधिगतो हि जन्तुनिवहस्तेषां कथं निष्कृतिः
ज्ञात्वा तद्वि विरिञ्चिना विरचिता वाराणसी शर्मदा ।
लोकाःस्वर्गसुखास्ततोऽपि लघवो भोगान्तपातप्रदाः
काशी मुक्तिपुरी सदा शिवकरी धर्मार्थमोक्षप्रदा ॥ ५॥

एको वेणुधरो धराधरधरः श्रीवत्सभूषाधरः
योऽप्येकः किल शंकरो विषधरो गङ्गाधरो माधवः ।
ये मातर्मणिकर्णिके तव जले मज्जन्ति ते मानवाः
रुद्रा वा हरयो भवन्ति बहवस्तेषां बहुत्वं कथम् ॥ ६॥

त्वत्तीरे मरणं तु मङ्गलकरं देवैरपि श्लाध्यते
शक्रस्तं मनुजं सहस्रनयनैर्द्रष्टुं सदा तत्परः ।
आयान्तं सविता सहस्रकिरणैः प्रत्युग्दतोऽभूत्सदा
पुण्योऽसौ वृषगोऽथवा गरुडगः किं मन्दिरं यास्यति ॥ ७॥

मध्याह्ने मणिकर्णिकास्नपनजं पुण्यं न वक्तुं क्षमः
स्वीयैरब्धशतैश्चतुर्मुखधरो वेदार्थदीक्षागुरुः ।
योगाभ्यासबलेन चन्द्रशिखरस्तत्पुण्यपारंगतः
त्वत्तीरे प्रकरोति सुप्तपुरुषं नारायणं वा शिवम् ॥ ८॥

कृच्छैर्ः कोटिशतैः स्वपापनिधनं यच्चाश्वमेधैः फलं
तत्सर्वे मणिकर्णिकास्नपनजे पुण्ये प्रविष्टं भवेत् ।
स्नात्वा स्तोत्रमिदं नरः पठति चेत्संसारपाथोनिधिं
तीर्त्वा पल्वलवत्प्रयाति सदनं तेजोमयं ब्रह्मणः ॥ ९॥

इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यस्य
श्रीगोविन्दभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य
श्रीमच्छंकरभगवतः कृतौ
मणिकर्णिकाष्टकं सम्पूर्णम् ॥

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Friday, 8 November 2019

॥ शनैश्चरस्तोत्रम् ॥


॥ शनैश्चरस्तोत्रम् ॥

अथ शनैश्चरस्तोत्रप्रारम्भः ।

अस्य श्रीशनैश्चरस्तोत्रमहामन्त्रस्य काश्यप ऋषिः ।
अनुष्ट्प्छन्दः ।शनैश्चरो देवता ।
शं बीजम् । नं शक्तिः ।
मं कीलकम् । शनैश्चरप्रसादसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः ।
शनैश्चराय अङ्गुष्ठाभ्यां नमः ।
मन्दगतये तर्जनीभ्यां नमः ।
सौराय अनामिकाभ्यां नमः ।
शुष्कोदराय कनिष्ठिकाभ्यां नमः ।
छायात्मजाय करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ।
शनैश्चराय हृदयाय नमः ।
मन्दगतये शिरसे स्वाहा ।
अधोक्षजाय शिखायै वषट् ।
सौराय कवचाय हुम् ।
शुष्कोदराय नेत्रत्रयाय वौषट् ।
छायात्मजाय अस्त्राय फट् ।
भूर्भुवःसुवरोमिति दिग्बन्धः ।
ध्यानम् ।
चापासनो गृध्ररथस्तु नीलः प्रत्यङ्मुखः काश्यपगोत्रजातः ।
सशूलचापेषुगदाधरोऽव्यात् सौराष्ट्रदेशप्रभवश्च सौरिः ॥ १॥

नीलाम्बरो नीलवपुः किरीटी गृध्रासनस्थो विकृताननश्च ।
केयूरहारादिविभूषिताङ्गः सदास्तु मे मन्दगतिः प्रसन्नः ॥ २॥

शनैश्चराय शान्ताय सर्वाभीष्टप्रदायिने ।
नमः सर्वात्मने तुभ्यं नमो नीलाम्बराय च ॥ ३॥

द्वादशाष्टमजन्मानि द्वितीयान्तेषु राशिषु ।
ये ये मे सङ्गता दोषाः सर्वे नश्यन्तु वै प्रभो ॥ ४॥

सूत उवाच ।
श‍ृणुध्वं मुनयः सर्वे शनिपीडाहरं शुभम् ।
शनिप्रीतिकरं स्तोत्रं सर्वाभीष्टफलप्रदम् ॥ ५॥

पुरा कैलासशिखरे पार्वत्यै शङ्करेण च ।
उपदिष्टं शनिस्तोत्रं प्रवक्ष्यामि तपोधनाः ॥ ६॥

रघुवंशेऽतिविख्यातो राजा दशरथः प्रभुः ।
बभूव चक्रवर्ती च सप्तद्वीपाधिपो बली ॥ ७॥

कृत्तिकान्ते शनौ याते दैवज्ञैर्ज्ञापितो हि सः ।
रोहिणीशकटं भित्वा शनिर्यास्यति साम्प्रतम् ॥ ८॥

इत्थं शकटभेदेन सुरासुरभयङ्करम् ।
द्वादशाब्दं तु दुर्भिक्षं भविष्यति सुदारुणम् ॥ ९॥

देशाश्च नगरग्रामाः भयभीताः समन्ततः ।
ब्रुवन्ति सर्वलोकानां भयमेतत्समागमम् ॥ १०॥

एवमुक्तस्ततो वाक्यं मन्त्रिभिः सह पार्थिवः ।
व्याकुलं तु जगद्दृष्ट्वा पौरजानपदादिकम् ॥ ११॥

पप्रच्छ प्रयतो राजा वसिष्ठप्रमुखान् ऋषीन् ।
समाधानं किमस्यास्ति ब्रूत मे मुनिसत्तमाः ॥ १२॥

प्रजानां परिरक्षायै सर्वज्ञाः सर्वदर्शिनः ।
तच्छ्रुत्वा मुनयः सर्वे प्रोचुरस्य बलं महत् ॥ १३॥

शनैश्चरेण शकटे तस्मिन् भिन्ने कुतः प्रजाः ।
अयं योगो ह्यसाध्यं तु शक्रब्रह्मादिभिस्तथा ॥ १४!!
स तु सञ्चिन्त्य मनसा सहसा पुरुषर्षभः ।
समादाय धनुर्दिव्यं दिव्यायुधसमन्वितम् ॥ १५॥

रथमारुह्य वेगेन गतो नक्षत्रमण्डलम् ।
सपादयोजनं लक्षं सूर्यस्योपरि संस्थितम् ॥ १६॥

रोहिणीं पॄष्ठ्तः स्थाप्य राजा दशरथस्तदा ।
रथे तु काञ्चने दिव्ये सर्वरत्नविभूषिते ॥ १७॥

हंसवर्णहयैर्युक्ते महाकेतुसमुच्छ्रिते ॥

दीप्यमानो महारक्तकिरीटकटकादिभिः ॥ १८॥

बभ्राज स तदाकाशे द्वितीय इव भास्करः ।
आकर्णपूर्णचापेन संहारास्त्रं न्ययोजयत् ॥ १९॥

संहारास्त्रं शनिर्दृष्ट्वा सुरासुरभयङ्करम् ।
कृत्तिकान्ते तदा स्थित्वा प्रविशन् किल रोहिणीम् ॥ २०॥

दॄष्ट्वा दशरथं चाग्रे तस्थौ स भ्रुकुटीमुखः ।
हसित्वा तद्भयात्सौरिरिदं वचनमब्रवीत् ॥ २१॥

पौरुषं तव राजेन्द्र सुरासुरभयङ्करम् ।
देवासुरमनुष्याश्च सिद्धविद्याधरोरगाः ॥ २२॥

मयावलोकिताः सर्वे दैन्यमाशु व्रजन्ति ते ।
तुष्टोऽहं तव राजेन्द्र तपसा पौरुषेण च ॥ २३॥

वरं ब्रूहि प्रदास्यामि मनसा यदभीप्सितम् ।
दशरथ उवाच ।
(प्रसादं कुरु मे सौरे वरदो यदि मे स्थितः ।)
अद्य प्रभृति मे राष्ट्रे पीडा कार्या न कस्यचित् ॥ २४॥

रोहिणीं भेदयित्वा तु न गन्तव्यं त्वया शने ।
सरितः सागराः सर्वे यावच्चन्द्रार्कमेदिनी ॥ २५॥

द्वादशाब्दं तु दुर्भिक्षं न कदाचिद्भविष्यति ।
याचितं तु मया सौरे नान्यमिच्छाम्यहं वरम् ॥ २६॥

एवमस्त्विति सुप्रीतो वरं प्रादात्तु शाश्वतम् ।
कीर्तिरेषा त्वदीया च त्रैलोक्ये सम्भविष्यति ॥ २७॥

प्राप्य चैनं वरं राजा कृतकृत्योऽभवत्तदा ।
एवं वरं तु सम्प्राप्य हृष्टरोमा स पार्थिवः ॥ २८॥

रथोपस्थे धनुः स्थाप्य भूत्वा चैव कृताञ्जलिः ।
ध्यात्वा सरस्वतीं देवीं गणनाथं विनायकम् ॥ २९॥

राजा दशरथः स्तोत्रं सौरेरिदमथाकरोत् ।
दशरथ उवाच ।
नमः कृष्णाय नीलाय शिखिकण्ठनिभाय च ॥ ३०॥

नमो नीलमुखाब्जाय नीलोत्पलनिभाय च ।
नमो निर्मांसदेहाय दीर्घश्मश्रुजटाय च ॥ ३१॥

नमो विशालनेत्राय शुष्कोदर भयानक ।
नमः परुषनेत्राय स्थूलरोंणे नमो नमः ॥ ३२॥

नमो नित्यं क्षुधार्ताय अतृप्ताय नमो नमः ।
नमो दीर्घाय शुष्काय कालदंष्ट्राय ते नमः ॥ ३३॥

नमस्ते घोररूपाय दुर्निरीक्ष्याय ते नमः ।
नमो घोराय रौद्राय भीषणाय कराळिने॥ ३४॥

नमस्ते सर्वभक्षाय वलीमुख नमो।स्तु ते ।
सूर्यपुत्र नमस्तेस्तु भास्करोऽभयदायिने ॥ ३५॥

अधोदृष्टे नमस्तेऽस्तु संवर्तक नमो नमः ।
नमो मन्दगते तुभ्यं निस्त्रिंशाय नमो नमः ॥ ३६॥

नमो दुःसहदेहाय नित्ययोगरताय च ।
ज्ञानदृष्टे नमस्तेऽस्तु कश्यपात्मजसूनवे ॥ ३७॥

तुष्टो ददासि त्वं राज्यं क्रुद्धो हरसि तत्क्षणात् ।
देवासुरमनुष्याश्च सिद्धविद्याधरोरगाः ॥ ३८॥

त्वयावलोकिताः सर्वे दैन्यमाशु व्रजन्ति ते ।
ब्रह्मा शक्रो यमश्चैव ऋषयः सप्त सागराः ॥ ३९॥

राज्यभ्रष्टा भवन्तीह तव दृष्ट्यावलोकिताः ।
देशाश्च नगरग्रामाः द्वीपाश्च गिरयस्तथा ॥ ४०॥

सरितः सागराः सर्वे नाशं यान्ति समूलतः ।
प्रसादं कुरु मे सौरे वरदोऽसि महाबल ॥ ४१॥

एवमुक्तस्तदा सौरिः ग्रहराजो महाबलः ।
अब्रवीच्च शनिर्वाक्यं हृष्टरोमा स भास्करिः ॥ ४२॥

शनिरुवाच।
तुष्टोऽहं तव राजेन्द्र स्तोत्रेणानेन सुव्रत ।
वरं ब्रूहि प्रदास्यामि मनसा यदभीप्सितम् ॥ ४३॥

दशरथ उवाच ।
प्रसन्नो यदि मे सौरे पीडां कुरु न कस्यचित् ।
देवासुरमनुष्याणां पशुपन्नगपक्षिणाम् ॥ ।४४॥

शनिरुवाच ।
ग्रहणाच्च ग्रहाज्ञेयाः ग्रहाः पीडाकराः स्मॄताः ।
अदेयोऽपि वरोऽस्माभिः तुष्टोऽहं तु ददामि ते ॥ ४५॥

देवासुरमनुष्याश्च सिद्धविद्याधरोरगाः ।
पशुपक्षिमृगा वृक्षाः पीडां मुञ्चन्तु सर्वदा ॥ ४६॥

त्वया प्रोक्तमिदं स्तोत्रं यः पठेदिह मानवः ।
एककालं क्वचित्कालं पीडां मुञ्चामि तस्य वै ॥ ४७॥

मृत्युस्थानगतो वापि जन्मव्ययगतोऽपि वा ।
पठति श्रद्धया युक्तः शुचिः स्नात्वा समाहितः ॥ ४८॥

शमीपत्रैः समभ्यर्च्य प्रतिमां लोहजां मम ।
माषौदनं तिलैर्मिश्रं दद्याल्लोहं तु दक्षिणाम् ॥ ४९॥

कृष्णाङ्गां महिषीं वस्त्रं मामुद्दिश्य द्विजातये ।
मद्दिने तु विशेषेण स्तोत्रेणानेन पूजयेत् ॥ ५०॥

पूजयित्वा जपेत्स्तोत्रं भुक्त्वा चैव कृताञ्जलिः ।
तस्य पीडां न चैवाहं करिष्यामि कदाचन ॥ ५१॥

गोचरे जन्मलग्ने वा दशास्वन्तर्दशासु च ।
रक्षामि सततं तस्य पीडास्वन्यग्रहस्य च ॥ ५२॥

अनेनैव प्रकारेण पीडामुक्तं जगद्भवेत् ।
सूत उवाच ।
वरद्वयं तु सम्प्राप्य राजा दशरथस्तदा ॥ ५३॥

मेने कृतार्थमात्मानं नमस्कृत्य शनैश्चरम् ।
शनिना चाभ्यनुज्ञातः स्वस्थानमगमत् नृपः ॥ ५४॥

स्वस्थानं च ततो गत्वा प्राप्तकामोऽभवत्तदा ।
कोणः शनैश्चरो मन्दः छायाहृदयनन्दनः ॥ ५५॥

मार्ताण्डजस्तथा सौरिः पातङ्गिर्ग्रहनायकः ।
ब्रह्मण्यः क्रूरकर्मा च नीलवस्त्रोऽञ्जनद्युतिः ॥ ५६॥

द्वादशैतानि नामानि यः पठेच्च दिने दिने ।
विषमस्थोऽपि भगवान् सुप्रीतस्तस्य जायते ॥ ५७॥

मन्दवारे शुचिः स्नात्वा मिताहारो जितेन्द्रियः ।
तद्वर्णकुसुमैर्युक्तं सर्वाङ्गं द्विजसत्तमाः ॥ ५८॥

पूरयित्वान्नपानाद्यैः स्तोत्रं यः प्रयतः पठेत् ।
पुत्रकामो लभेत्पुत्रं धनकामो लभेद्धनम् ॥ ५९॥

राज्यकामो लभेद्राज्यं जयार्थी विजयी भवेत् ।
आयुष्कामो लभेदायुः श्रीकामः श्रियमाप्नुयात् ॥ ६०॥

यद्यदिच्छति तत्सर्वं भगवान् भक्तवत्सलः ।
चिन्तितानि च सर्वाणि ददाति च न संशयः ॥ ६१॥

इति श्री दशरथमहाराजकृतं शनैश्चरस्तोत्रं सम्पूर्णम्




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