Monday, 27 October 2025

*।।बुध ग्रह गोचर 2025/2026 वर्ष।।*

बुध ग्रह गोचर २०२५/२०२६

गोचर से फल ज्ञात करना

ग्रह विभिन्न राशियों में भ्रमण करते हैं। ग्रहों के भ्रमण का जो प्रभाव राशियों पर पड़ता है उसे गोचर का फल या गोचर फल कहते हैं। गोचर फल ज्ञात करने के लिए एक सामान्य नियम यह है कि जिस राशि में जन्म समय चन्द्र हो यानी आपकी अपनी जन्म राशि को पहला घर मान लेना चाहिए उसके बाद क्रमानुसार राशियों को बैठाकर कुण्डली तैयार कर लेनी चाहिए. इस कुण्डली में जिस दिन का फल देखना हो उस दिन ग्रह जिस राशि में हों उस अनुरूप ग्रहों को बैठा देना चाहिए. इसके पश्चात ग्रहों की दृष्टि एवं युति के आधार पर उस दिन का गोचर फल ज्ञात किया जा सकता है।


तुला 
अक्टूबर 3, 2025, शुक्रवार को 03:47 ए एम बजे

वृश्चिक 
अक्टूबर 24, 2025, शुक्रवार को 12:39 पी एम बजे
बुध वृश्चिक राशि में गोचर है।

तुला 
नवम्बर 23, 2025, रविवार को 07:58 पी एम बजे

वृश्चिक 
दिसम्बर 6, 2025, शनिवार को 08:52 पी एम बजे

धनु 
दिसम्बर 29, 2025, सोमवार को 07:27 ए एम बजे

मकर 
जनवरी 17, 2026, शनिवार को 10:27 ए एम बजे
Grahraj Astrology ज्योतिष वास्तु धार्मिकपूजा 

कुम्भ 
फरवरी 3, 2026, मंगलवार को 09:54 पी एम बजे

मीन 
अप्रैल 11, 2026, शनिवार को 01:20 ए एम बजे

मेष 
अप्रैल 30, 2026, बृहस्पतिवार को 06:55 ए एम बजे

वृषभ 
मई 15, 2026, शुक्रवार को 12:34 ए एम बजे

मिथुन 
मई 29, 2026, शुक्रवार को 11:14 ए एम बजे

कर्क 
जून 22, 2026, सोमवार को 03:41 पी एम बजे

मिथुन 
जुलाई 7, 2026, मंगलवार को 10:32 ए एम बजे

कर्क 
अगस्त 5, 2026, बुधवार को 07:58 पी एम बजे
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सिंह 
अगस्त 22, 2026, शनिवार को 07:33 पी एम बजे

कन्या 
सितम्बर 7, 2026, सोमवार को 01:35 पी एम बजे

तुला 
सितम्बर 26, 2026, शनिवार को 12:41 पी एम बजे

वृश्चिक 
दिसम्बर 2, 2026, बुधवार को 05:30 पी एम बजे

धनु 
दिसम्बर 22, 2026, मंगलवार को 07:42 ए एम बजे

गोचर का अर्थ होता है गमन यानी चलना. गो अर्थात तारा जिसे आप नक्षत्र या ग्रह के रूप में समझ सकते हैं और चर का मतलब होता है चलना. इस तरह गोचर का सम्पूर्ण अर्थ निकलता है ग्रहों का चलना. ज्योतिष की दृष्टि में सूर्य से लेकर राहु केतु तक सभी ग्रहों की अपनी गति है। अपनी-अपनी गति के अनुसार ही सभी ग्रह राशिचक्र में गमन करने में अलग-अलग समय लेते हैं। नवग्रहों में चन्द्र का गोचर सबसे कम अवधि का होता है क्योंकि इसकी गति तेज है। जबकि, शनि की गति मंद होने के कारण शनि का गोचर सबसे अधिक समय का होता है।
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ग्रहों का राशियों में भ्रमण काल-

सूर्य, शुक्र, बुध का भ्रमण काल 1 माह, चंद्र का सवा दो दिन, मंगल का 57 दिन, गुरू का 1 वर्ष, राहु-केतु का 1-1/2 (डेढ़ वर्ष) व शनि का भ्रमण का - 2-1/2 (ढ़ाई वर्ष) होता है।

सुचना 📵यह लेख पौराणिक ग्रंथों अथवा मान्यताओं पर आधारित है अत: इसमें वर्णित सामग्री के वैज्ञानिक प्रमाण होने का आश्वासन नहीं दिया जा सकता। विस्तार में आप कार्यालय पर संपर्क करें।

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Thursday, 25 September 2025

🚩।।नवदुर्गा 🙏कुमारिका पूजन विशेष।।🚩


।।कुमारिका पूजन विशेष।।

हिन्दू धर्म के अनुसार  नवरात्रों में कन्या पूजन का विशेष महत्व है. माँ भगवती के भक्त  अष्टमी या नवमी को कन्याओं की विशेष पूजा करते हैं . 

नौ कुंवारी कन्याओं को सम्मानित ढंग से बुलाकर उनका पैर अपने हाथो से धो-पोछ कर आसन पर बैठा कर भोजन करा सब को दक्षिणा और भेंट देते हैं.

श्रीमद देवीभागवत के अनुसार कन्या पूजन के भी कुछ नियम हैं जिनको हमें पालन करना चाहिए,

 जैसे  एक वर्ष की कन्या को नही बुलाना चाहिए, क्योकि वह कन्या गंध भोग आदि पदार्थो के स्वाद से बिलकुल अनभिज्ञ रहती हैं .

‘कुमारी’ कन्या वह कहलाती है जो दो वर्ष की हो चुकी हो, 

तीन वर्ष की कन्या त्रिमूर्ति, 

चार वर्ष की कल्याणी , 

पांच वर्ष की रोहिणी, 

छ:वर्ष की कालिका, 

सात वर्ष की चण्डिका, 

आठ वर्षकी शाम्भवी, 

नौ वर्षकी दुर्गा और

 दस वर्ष की कन्या सुभद्रा कहलाती हैं .

इससे उपर की अवस्थावाली कन्या का पूजन नही करना चाहिए .

 कुमारियो की विधिवत पूजा करनी चाहिए . 

फिर स्वयं प्रसाद ग्रहण कर अपने व्रत को पूर्ण कर ब्राह्मण को नौवों दिन की दक्षिणा दे पैर छू विदा करना चाहिए .

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कुमारी कन्यायों के पूजन से प्राप्त होने वाले लाभ इस तरह से हैं .

कुमारी” नाम की कन्या जो दो वर्ष की होती हैं  पूजित हो कर दुःख तथा दरिद्रता का नाश ,शत्रुओं का क्षय और धन, आयु की वृद्धि करती हैं .

त्रिमूर्ति” नाम की कन्या का पूजन करने से धर्म-अर्थ काम की पूर्ति होती हैं पुत्र- पौत्र आदि की वृद्धि होती है .

कल्याणी” नाम की कन्या का नित्य पूजन करने से विद्या, विजय, सुख-समृद्धि प्राप्त होती हैं.

रोहणी” नाम की कन्या के पूजन रोगनाश हो जाता हैं

कालिका”  नाम की कन्या के पूजन से शत्रुओं का नाश होता हैं

चण्डिका”  नाम की कन्या के पूजन से धन एवं ऐश्वर्य की प्राप्ति होती हैंं

शाम्भवी” नाम की कन्या के पूजन से सम्मोहन, दुःख-दरिद्रता का नाश व  किसी भी प्रकार के युद्ध (संग्राम) में विजय प्राप्त होती हैं .

दुर्गा” नाम की कन्या के पूजन से क्रूर शत्रु का नाश, उग्र कर्म की साधना व पर-लोक में सुख पाने के लिए की जाती हैं

सुभद्रा– मनुष्य को अपने मनोरथ की सिद्धि  के लिए “सुभद्रा”की पूजा करनी चाहिए

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कुमारी पूजा

॥ माहात्म्य ॥ ब्राह्मणी सर्वकार्येषु जयार्थे नृपवंशजाम् । लाभार्थे वैश्यवंशोत्थां सुतार्थे शूद्रवंशजाम् ॥ दारुणे चान्त्यजातीनां पूजयेद्विधिना नरः । वर्जयेत् सर्वकार्येषु दासीगर्भसमुद्भवाम् ॥ ॥ रुद्रयामले ॥ नटीकन्यां हीनकन्यां तथा कापालिकन्यकाम् । रजकस्यापि कन्या च तथा नापितकन्यकाम् ॥ गोपालकन्यकां चैव ब्राह्मणस्यापि कन्यकाम् । शूद्रकन्यां वैद्यकन्यां तथा वैश्यस्य कन्यकाम् ॥ चाण्डालकन्यकां वापि यत्रकुत्राश्रमे स्थिताम् । सुहृदवर्गस्य कन्यां च समानीय प्रयत्नतः ॥ ॥ योगिनीतन्त्रे ॥ यदि भाग्यवशाद्देवि वेश्याकुलसमुद्भवा । कुमारी लभ्यते कान्ते सर्वस्वेनापि साधकः ॥ यत्नतःपूजयेतां तु स्वर्णरौप्यादिभिर्मुदा । तदा तस्य महासिद्धिर्जायते नात्र संशयः ॥ तस्मात्तां पूजयेद्बालां सर्वजाति समुद्भवाम् । जातिभेदोनकर्त्तव्यःकुमारीपूजने-शिवे ॥ जातिभेदान्महेशानि नरकान्न निवर्त्तते । विचिकित्सापरो मन्त्री ध्रुवं स पातकी भवेत् ॥ एषा प्रशस्ता कुमारी तु सर्वजातीयेव पूज्या । ॥ कुब्जिकातन्त्रे ॥ पञ्चवर्षात्समारभ्य यावद् द्वादशवार्षिकी । कुमारी सा भवेद्देवी निजरूपप्रकाशिनी ॥ षड्वर्षाच्च समारभ्य यावच्च नववर्षिका । तावच्चैव महेशानि साधकाभीष्टसिद्धये ॥ अष्टवर्षात्समारभ्य यावत्त्रयोदशाब्दिकी । कुलजां तां विजानियात् तत्र पूजां समाचरेत् ॥ दशवर्षात्समारभ्य यावत्षोडशवार्षिकी । युवतीं तां विजानियाद् देवतां तां विचिन्तयेत् ॥ ॥ विश्वसारतन्त्रे ॥ अष्टवर्षा तु सा कन्या भवेद्गौरी वरानने । नववर्षा रोहिणी सा दशवर्षा तु कन्यका ॥ अत ऊर्ध्वं महामाया भवेत्सैव रजस्वला ॥ ॥ रुद्रयामले ॥ एकवर्षा भवेत् सन्ध्या द्विवर्षा च सरस्वती । त्रिवर्षा च त्रिधामूर्तिश्चतुर्वर्षा तु कालिका ॥ शुभगा पञ्चवर्षा तु षड्वर्षा च ह्युमा भवेत् । सप्तभिर्मालिनी प्रोक्ता ह्यष्टवर्षा च कुब्जिका ॥ नवभिः कालसन्दर्भा दशभिश्चापराजिता । एकादशा तु रुद्राणी द्वादशाब्दा तु भैरवी ॥ त्रयोदशा महालक्ष्मी द्विसप्ता पीठनायिका । क्षेत्रज्ञा पञ्चदशभिः षोडशे चाम्बिका भवेत् । एवं क्रमेण सम्पूज्य यावत्पुष्पं न जायते ॥ (पुष्पं रजोस्रावम्) प्रतिपदादि पूर्णान्त वृद्धिभेदेन पूजयेत् । महापर्वसु सर्वेषु विशेषाच्च पवित्रके ॥ महानवम्यां देवेशि कुमारीश्च प्रपूजयेत् । अष्टोत्तरशतं वापि एकां वापि प्रपूजयेत् ॥ पूजिता प्रतिपूज्यन्ते निर्दहन्त्यवमानिताः । कुमारी योगिनी साक्षात् कुमारी परदेवता ॥ असुरा अष्टनागाश्च ये ये दुष्टग्रहा अपि । भूतवैतालगन्धर्व डाकिनीयक्षराक्षसाः ॥ याश्चान्या देवताः सर्वा भूर्भुवःस्वश्च भैरवाः । पृथिव्यादीनि सर्वाणि ब्रह्माण्डं सचराचरम् ॥ ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च ईश्वरश्च सदाशिवः । सन्तुष्टः सर्वतुष्टश्च यस्तु कन्यां प्रपूजयेत् ॥ ॥ मन्त्रमहोदधौ ॥ द्विवर्षा सा कुमार्युक्ता त्रिमूर्तिः हायनत्रिका । चतुरद्वा तु कल्याणी पञ्चवर्षा तु रोहिणी ॥ षडब्दा कालिका प्रोक्ता चण्डिका सप्तहायना । अष्टवर्षा शाम्भवी स्यात् दुर्गा तु नवहायना । सुभद्रा दशवर्षोक्ता नाममन्त्रैः प्रपूजयेत् ॥ पूजादिना पूर्वदिने - (पूजा से एक दिन पुर्व ही निमन्त्रण देना है ।) गन्धपुष्पाक्षतादिभिर्मूलेन ॥ भगवति कुमारि पूजार्थं त्वं मया निमन्त्रितासि मां कृतार्थय ॥ इति निमन्त्र्य नमस्कुर्यात् ॥ निमन्त्रितां प्रातराहूय प्रदक्षिणीकृत्य - पत्नीद्वारा उद्वर्तनाद्यैः स्नापयित्वा । गन्धतैलेन शरीरं संस्कार्य । केशं परिष्कृत्य । ललाटे सिन्दूरं - नयनयोः कज्जलं सर्वाङ्गे चन्दनं वस्त्रालङ्कारैराभूष्य । सपत्नीकयजमानः - कुमारीं पूजागृहे आनीय पादौ प्रक्षाल्य । अष्टदलपीठोपरि समावेश्य । ताम्बूलेन मुखं संशोध्य । ॥ सङ्कल्पः ॥ देशकालौ सङ्कीर्तनान्ते -कामना सिद्ध्यर्थं -कर्मणि नवरात्रौ वा -देवता प्रीत्यर्थं कुमारीपूजां करिष्ये अथवा बटुक कुमारी सुवासिनी पूजां करिष्ये ॥ (५ से १२वर्ष का उपनीत ब्राह्मणबटु) (कैशोरी युवती यतिः । अप्रौढा चैव प्रौढा च वृद्धमाता बलप्रदा ।) (दुर्गाशतनामस्तोत्रे१२-१३) ॥ बटुक पूजन ॥ उपनीत केशान्तपूर्वसंज्ञक ब्राह्मणबटुं निमन्त्र्य । स्नानादिभिः संस्कार्य - ``बं बटुकाय नमः'' इति सोपवीत गन्धाक्षत- वस्त्रयुग्म-कुण्डलादिभिरभ्यर्च्य - नमस्कुर्यात् ॥ करकलितकपालः कुण्डलीदण्डपाणिस्तरुणतिमिरनीलो व्यालयज्ञोपवीती । क्रतुसमयसपर्याविघ्नविच्छेदहेतुर्जयति बटुकनाथः सिद्धिदः साधकानाम् ॥ सुप्रसन्नबटुकाय द्विजवर्याय मेधसे । भैरवाय नमस्तुभ्यमनुज्ञां दातुमर्हसि ॥ ॥ षडङ्गन्यासः ॥ क्लां कुमारिके हृदयाय नमः । क्लीं कुमारिके शिरसे स्वाहा । क्लुं कुमारिके शिखायै वषट् । क्लैं कुमारिके कवचाय हुम् । क्लौं कुमारिके नेत्रत्रयाय वौषट् । क्लः कुमारिके अस्त्राय फट् ॥ ॥ अथ करन्यासः ॥ क्लां कुमारिके अङ्गुष्ठाभ्यां नमः । क्लीं कुमारिके तर्जनीभ्यां नमः । क्लुं कुमारिके मध्यमाभ्यां नमः । क्लैं कुमारिके अनामिकाभ्यां नमः । क्लौं कुमारिके कनिष्ठिकाभ्यां नमः । क्लः कुमारिके करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ॥ ॥ कुमारिकाध्यानम् ॥ शङ्खकुन्देन्दु धवलां द्विभुजां वरदाभयाम् । चन्द्रमयमहाम्भोजभावहाव विराजिताम् ॥ बालरूपां च त्रैलोक्य सुन्दरीं वरवर्णिनीम् । नानालङ्कारनम्राङ्गीं भद्रविद्यां प्रकाशिनीम् ॥ चारुहास्यां महानन्दहृदयां शुभदां शुभाम् ॥ इति ध्यात्वा शिरसि पुष्पं दत्वावाहयेत् --- (जपनीय, अनुष्ठानीय मन्त्रो के प्रत्येक अक्षरो देवीमय हैं) मन्त्राक्षरमयीं लक्ष्मीं मातृणां रूपधारिणीम् । नवदुर्गात्मिकां साक्षात् कन्यामावाहयाम्यहम् ॥ इति पुष्पैरावाह्य ॥ ह्रीं कुलकुमारिकायै नमः - इदं वः पाद्यं पादावनेजनं पादप्रक्षालनम् (पाद्यमन्त्रमुच्चार्य, पाद्यं समर्पयामि ॥ ह्रीं कुलकुमारिकायै नमः - इदमर्घ्यं स्वाहा (अर्घ्यमन्त्रमुच्चार्य, अर्घ्यं कल्पयामि स्वाहा ॥ ह्रीं कुलकुमारिकायै नमः - गृहाणेदमाचमनीयं वं नमः (वं -आचमनीयमन्त्रमुच्चार्य, आचमनं कल्पयामि ॥ ह्रीं कुलकुमारिकायै नमः - इदमनुलेपनं नमः (रक्तचन्दनेन कुङ्कुमेन वा- गन्धमन्त्रमुच्चार्य, कनिष्ठिकाङ्गुष्ठयोगेन गन्धं परिकल्पयामि नमः ॥ ह्रीं कुलकुमारिकायै नमः - एतेक्षताः नमः (अक्षतदानमन्त्रमुच्चार्य सर्वाङ्गुलिभिः अक्षतां परिकल्पयामि नमः ॥ ह्रीं कुलकुमारिकायै नमः - एतानि पुष्पाणि समाल्यानि स बिल्वपत्राणि वौषट् (मन्त्रमुच्चार्य, तर्जन्यङ्गुष्ठयोगेन, पुष्पाणि- समाल्यानि-बिल्वपत्राणि परिकल्पयामि वौषट् ॥ ह्रीं कुलकुमारिकायै नमः - एष धूपः (नाभौ धूपं दत्वा, वामभागे धूपपात्रं संस्थाप्य, धूपमन्त्रमुच्चार्य, धूपं परिकल्पयामि, उत्तानहस्तस्थ तर्जन्यङ्गुष्ठयोगेन धूपमुद्रां प्रदर्शयेत् ॥ ह्रीं कुलकुमारिकायै नमः - एष दीपः (ललाटादि पादान्तं दीपं प्रदर्श्य, देव्यादक्षिणे दीपपात्रं निधाय, दीपमन्त्रमुच्चार्य दीपं दर्शयामि, उत्तानहस्तस्थ मध्यमाङ्गुष्ठयोगेन दीपमुद्रां प्रदर्शयेत् ॥ सुवासिनी पूजा (११ से १६वर्ष तक की)--- युग्मवस्त्राभूषणादिभिः सन्तोष्य - या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण ०० इति मन्त्रेण वा पाद्यादिभिः ``ह्रीं सुवासिन्यै नमः'' इति दीपदानान्तं सम्पूज्य ॥ ह्रीं सुवासिन्यै नमः - इदं वः पाद्यं पादावनेजनं पादप्रक्षालनम् (पाद्यमन्त्रमुच्चार्य, पाद्यं समर्पयामि ॥ ह्रीं सुवासिन्यै नमः - इदमर्घ्यं स्वाहा (अर्घ्यमन्त्रमुच्चार्य, अर्घ्यं कल्पयामि स्वाहा ॥ ह्रीं सुवासिन्यै नमः - गृहाणेदमाचमनीयं वं नमः (वं -आचमनीयमन्त्रमुच्चार्य, आचमनं कल्पयामि ॥ ह्रीं सुवासिन्यै नमः - इदमनुलेपनं नमः (रक्तचन्दनेन कुङ्कुमेन वा- गन्धमन्त्रमुच्चार्य, कनिष्ठिकाङ्गुष्ठयोगेन गन्धं परिकल्पयामि नमः ॥ ह्रीं सुवासिन्यै नमः - एतेक्षताः नमः (अक्षतदानमन्त्रमुच्चार्य सर्वाङ्गुलिभिः, अक्षतां परिकल्पयामि नमः ॥ ह्रीं सुवासिन्यै नमः - एतानि पुष्पाणि समाल्यानि स बिल्वपत्राणि वौषट् (मन्त्रमुच्चार्य, तर्जन्यङ्गुष्ठयोगेन, पुष्पाणि- समाल्यानि- बिल्वपत्राणि परिकल्पयामि वौषट् ॥ ह्रीं सुवासिन्यै नमः - एष धूपः (नाभौ धूपं दत्वा, वामभागे धूपपात्रं संस्थाप्य, धूपमन्त्रमुच्चार्य, धूपं परिकल्पयामि, उत्तानहस्तस्थ तर्जन्यङ्गुष्ठयोगेन धूपमुद्रां प्रदर्शयेत् ॥ ह्रीं सुवासिन्यै नमः - एष दीपः (ललाटादि पादान्तं दीपं प्रदर्श्य, देव्यादक्षिणे दीपपात्रं निधाय, दीपमन्त्रमुच्चार्य दीपं दर्शयामि, उत्तानहस्तस्थ मध्यमाङ्गुष्ठयोगेन दीपमुद्रां प्रदर्शयेत् ॥ बटुककुमारीसुवासिनीभ्यः - पालाशादीविहित पात्रे षड्रस नैवेद्यं दत्वा, ह्री बटुकाय नमः - इदं नैवेद्यं स्वाहा । ह्रीं कुलकुमारिकायै नमः - इदं नैवेद्यं स्वाहा । ह्रीं सुवासिन्यै नमः इदं नैवेद्यं स्वाहा । (नैवेद्यमन्त्रान् पठित्वा नैवेद्यं समर्पयामीति तत्तत्स्थाने सङ्कल्प्य, उत्तानहस्तस्थ अनामिकांङ्गुष्ठयोगेन नैवेद्यमुद्रां प्रदर्शयेत् ॥) बटुकाय फलम् - फलेन फलितं सर्वं त्रैलोक्यं सचराचरम् । फलस्यार्घप्रदानेन सफलाः सन्तु मनोरथाः ॥ ह्रीं बं बटुकाय नमः इदं फलं यथादत्तं बटुकभैरवाय न मम ॥ कुमारीभ्यः ताम्बूलम् - ह्रीं कुलकुमारिकायै नमः । इदं ताम्बूलं यथादत्तं कुलकुमारीभ्यो न मम ॥ सुवासिनीभ्यश्च -- ह्रीं सुवासिन्यै नमः । इदं ताम्बूलं यथादत्तं सुवासिन्यै (सुवासिनीभ्यो) न मम ॥ भूमौ पालाशपत्रे ताम्बूलपत्रे वा कुङ्कुमेन षट्कोणं विलिख्य ॥ (पुष्पाञ्जलिः) - सञ्चिन्मय परे देवि परामृत चरुप्रिये । अनुज्ञां देहि हे मातर्परिवारार्चनाय ते ॥ अथ षट्कोणे - गन्धाक्षतैः । आग्नेयकोणे -क्लां कुमारिके हृदयाय नमः । नैरृत्यकोणे - क्लीं कुमारिके शिरसे स्वाहा । वायव्यकोणे - क्लुं कुमारिके शिखायै वषट् । ईशानकोणे - क्लैं कुमारिके कवचाय हुम् । पश्चिकोणे - क्लौं कुमारिके नेत्रत्रयाय वौषट् । पूर्वकोणे - क्लः कुमारिके अस्त्राय फट् ॥ मध्ये - ह्रीं हंसः कुलकुमारिके श्री पादुकां पूजयामि ॥ इति पुष्पाञ्जलित्रयं दत्त्वा नवनामभिः पूजयेत् -- ह्रीं कुमार्य्यै नमः । ह्रीं त्रिपुरायै नमः । ह्रीं कल्याण्यै नमः । ह्रीं रोहिण्यै नमः । ह्रीं कामिन्यै नमः । ह्रीं चण्डिकायै नमः । ह्रीं शाङ्कर्यै नमः । ह्रीं दुर्गायै नमः । ह्रीं सुभद्रायै नमः ॥ इति सम्पूज्य तदङ्गे ``ह्रीं धनुर्बाणधरायै दुर्गायै विच्चे नमः ।'' इति दुर्गां आवाह्य -षोडशनामभिः नमोन्तेन च पूजयेत् ॥ उमायै नमः । शूलधारिण्यै नमः । खेचर्यै नमः । चत्वरवासिन्यै नमः । सुगन्धनासिकायै नमः । सर्वधारिण्यै नमः । चण्डिकायै नमः । सौभद्रिकायै नमः । अशोकवासिन्यै नमः । वज्रधारिण्यै नमः । ललितायै नमः । सिंहवाहिन्यै नमः । भगवत्यै नमः । विन्ध्यवासिन्यै नमः । महाबलायै नमः । भूतवासिन्यै नमः । इति सम्पूज्य ``मूलमन्त्रेण'' पुष्पाञ्जलित्रयं दत्वा, प्रदक्षिणी कृत्य ॥ ॥ त्रिकोणाकारं प्रणमेत् ॥ दक्षिणाद्वायवीं गत्वा दिशं तस्माच्च शाम्भवि । ततश्च दक्षिणां गत्वा नमस्कारस्त्रिकोणवत् ॥ (अर्थात् दक्षिणदिशा से कदम के सहारे चलते चलते वायव्य में जाकर वहाँ से पश्चिम के सिधे मार्ग से होते हुए नैरृत्य की ओर से पुनः दक्षिण में जाकर वहाँ से ही नमस्कार करे ॥) जगत्पूज्ये जगद्वन्द्ये सर्वशक्तिस्वरूपिणी । पूजां गृहाण कौमारि जगन्मातर्नमोऽस्तु ते ॥ त्रिपुरां त्रिगुणां धात्रीं ज्ञानमार्गस्वरूपिणीम् । त्रैलोक्यवन्दितां देवीं त्रिमूर्तिं पूजयाम्यहम् ॥ कालात्मिकां कालभीतां कारुण्यथृदयां शिवाम् । कारुण्यजननीं नित्यां कल्याणीं पूजयाम्यहम् ॥ अणिमादिगुणोपेता मकारादिस्वरात्मिकाम् । शक्तिभेदात्मिकां लक्ष्मीं रोहिणीं पूजयाम्यहम् ॥ कलाधरां कलारूपां कालचण्डस्वरूपिणीम् । कामदां करुणाधारां कामिनीं पूजयाम्यहम् ॥ चण्डधारां चण्डमायां चण्डमुण्डविनाशिनीम् । प्रणमामि च देवेशीं चण्डिकां पूजयाम्यहम् ॥ सुखनन्दकरीं शान्तां सर्वदेवनमस्कृताम् । सर्वभूतात्मिकां देवीं शाङ्करीं पूजयाम्यहम् ॥ दुर्गमे दुस्तरे चैव दुःखत्रयविनाशिनीम् । पूजयामि सदा भक्त्या दुर्गां दुर्गे नमाम्यहम् ॥ सुन्दरीं स्वर्णवर्णाभां सुखसौभाग्यदायिनीम् । सुभद्रजननीं देवीं सुभद्रां प्रणमाम्यहम् ॥ ॥ इति संप्रार्थ्य तत्राङ्गे स्वेष्टदेवतां (अनुष्ठनीय मन्त्रदेवतां) ध्यात्वा ॥ ॥ दुर्गा अष्टोत्तरशतनामस्तोत्रेण च स्तुत्वा ॥(विश्वसारतन्त्रे) ईश्वर उवाच । शतनाम प्रवक्ष्यामि शऋणुष्व कमलानने । यस्य प्रसादमात्रेण दुर्गा प्रीता भवेत् सती ॥ सती साध्वी भवप्रीता भवानी भवमोचनी । आर्या दुर्गा जया चाद्या त्रिनेत्रा शूलधारिणी ॥ पिनाकधारिणी चित्रा चण्डघण्टा महातपाः । मनो बुद्धिरहङ्कारा चित्तरूपा चिता चितिः ॥ सर्वमन्त्रमयी सत्ता सत्यानन्दस्वरूपिणी । अनन्ता भाविनी भाव्या भव्याभव्या सदागतिः ॥ शाम्भवी देवमाता च चिन्ता रत्नप्रिया सदा । सर्वविद्या दक्षकन्या दक्षयज्ञविनाशिनी ॥ अपर्णानेकवर्णा च पाटला पाटलावती । पट्टाम्बर परीधाना कलमञ्जीररञ्जिनी ॥ अमेयविक्रमा क्रुरा सुन्दरी सुरसुन्दरी । वनदुर्गा च मातङ्गी मतङ्गमुनिपूजिता ॥ ब्राह्मी माहेश्वरी चैन्द्री कौमारी वैष्णवी तथा । चामुण्डा चैव वाराही लक्ष्मीश्च पुरुषाकृतिः ॥ विमलोत्कर्षिणी ज्ञाना क्रिया नित्या च बुद्धिदा । बहुला बहुलप्रेमा सर्ववाहन वाहना ॥ निशुम्भशुम्भहननी महिषासुरमर्दिनी । मधुकैटभहन्त्री च चण्डमुण्डविनाशिनी ॥ सर्वासुरविनाशा च सर्वदानवघातिनी । सर्वशास्त्रमयी सत्या सर्वास्त्रधारिणी तथा ॥ अनेकशस्त्रहस्ता च अनेकास्त्रस्य धारिणी । कुमारी चैककन्या च कैशोरी युवती यतिः ॥ अप्रौढा चैव प्रौढा च वृद्धमाता बलप्रदा । महोदरी मुक्तकेशी घोररूपा महाबला ॥ अग्निज्वाला रौद्रमुखी कालरात्रिस्तपस्विनी । नारायणी भद्रकाली विष्णुमाया जलोदरी ॥ शिवदूती कराली च अनन्ता परमेश्वरी । कात्यायनी च सावित्री प्रत्यक्षा ब्रह्मवादिनी ॥ य इदं प्रपठेन्नित्यं दुर्गानामशताष्टकम् । नासाध्यं विद्यते देवि त्रिषु लोकेषु पार्वति ॥ धनं धान्यं सुतं जायां हयं हस्तिनमेव च । चतुर्वर्गं तथा चान्ते लभेन्मुक्तिं च शाश्वतीम् ॥ कुमारीं पूजयित्वा तु ध्यात्वा देवीं सुरेश्वरीम् । पूजयेत् परया भक्त्या पठेन्नामशताष्टकम् ॥ तस्य सिद्धिर्भवेद् देवि सर्वैः सुरवरैरपि । राजानो दासतां यान्ति राज्यश्रियमवाप्नुयात् ॥ गोरोचनालक्तककुङ्कुमेव सिन्धूरकर्पूरमधुत्रयेण । विलिख्य यन्त्रं विधिना विधिज्ञो भवेत् सदा धारयते पुरारिः ॥ भौमावास्यानिशामग्रे चन्द्रे शतभिषां गते । विलिख्य प्रपठेत् स्तोत्रं स भवेत् सम्पदां पदम् ॥ षोडशनामभिः नमोन्तेन च पूजयेत् ॥ ऐं सन्ध्यायै नमः । ऐं सरस्वत्यै नमः । ऐं त्रिमूर्त्यै नमः । ऐं कालिकायै नमः । ऐं सुभगायै नमः । ऐं उमायै नमः । ऐं मालिन्यै नमः । ऐं कुब्जिकायै नमः । ऐं कालसङ्कर्षिण्यै नमः । ऐं अपराजितायै नमः । ऐं रुद्राण्यै नमः । ऐं भैरव्यै नमः । ऐं महालक्ष्म्यै नमः । ऐं पीठनायिकायै नमः । ऐं क्षेत्रज्ञायै नमः । ऐं चर्च्चिकायै नमः ॥ सुवासिनीभ्यः--- या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण००॥ पुरन्ध्री-स्त्रीणां पूजनम् - गन्धाक्षतोपहारैः सन्तोष्य ॥ प्रणमेत् -- या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण००॥ (विशेष - सुवासिनी व पुरन्ध्री-स्त्री सगोत्रीया ७ पिढ़ीतक की अथवा सोदका ८ से १४ पिढ़ी तक की ही पूजनीया हैं तदन्य केवल वन्दनीया -- बालां वा यौवनोन्मत्तां वृद्धां वा सुन्दरीं तथा । कुत्सितां वा महादुष्टां नमस्कृत्य विभावयेत् ॥ तासां प्रहारं न निन्दां च कौटिल्यमप्रियं यथा । सर्वथा च न कर्तव्यमन्था शक्तिरोधकृत् ॥ यदि भाग्यवशाद्देवी कुलदृष्टिः प्रजायते । तदेवमानसीं पूजा तत्र तासां प्रकल्पयेत् ॥ यदि स्त्री के गोपनीयाङ्ग दिख जाए तो देवीदृष्टि से मानसिक नमस्कार करे । विकार से दूर रहे । सङ्कल्पः-- अनेन बटुककुमारीसुवासिनीनां पूजनेन तत् सत् श्री जगदम्बार्पणमस्तु ॥ ॥ कुमारीपूजन फलादेशः ॥ पूजोपकरणानीह कुमार्यै यो ददाति हि । सन्तुष्टा देवता तस्य पुत्रत्वे सोऽनुकल्प्यते ॥ ॥ योगिनी तन्त्रे ॥ कुमारीपूजनफलं वक्तुं नार्हामि सुन्दरि । जिह्वाकोटिसहस्रैस्तु वक्त्रकोटिशतैरपि ॥ कुमारी पूज्यते यत्र स देशः क्षितिपावनः । महापुण्यतमो भूयात् समन्तात् क्रोशपञ्चकम् ॥ ॥ रुद्रयामले ॥ महापूजादिकं कृत्वा वस्त्रालङ्कारभोजनैः । पूजनान्मन्दसौभाग्योऽपि लभते जयमङ्गलम् ॥ पूजया लभते पुत्रान् पूजया लभते श्रियम् । पूजया धनमाप्नोति पूजया लभते महीम् ॥ पूजया लभते लक्ष्मीं सरस्वतीं महौजसम् । महाविद्याः प्रसीदन्ति सर्वे देवा न संशयः ॥ कालभैरवब्रह्मेन्द्र ब्राह्मणा ब्रह्मवेदिनः । रुद्रश्च देववर्गाश्च वैष्णवा ब्रह्मरूपिणः ॥ अवताराश्च द्विभूजा वैष्णवा मनुशोभिताः । अन्ये दिक्पालदेवाश्च चराचरगुरुस्तथा ॥ नानाविद्याश्रिताः सर्वे दानवाः कूटशालिनः । उपसर्गस्थिता ये ये ते ते तुष्टा न संशयः ॥ कुमारी योगिनी साक्षात् कुमारी परदेवता । असुरा दुष्टनागाश्च ये ये दुष्टग्रहा अपि ॥ भूतवैतालगन्धर्वा डाकिनीयक्षराक्षसाः । याश्चान्या देवताः सर्वा भूर्भुवः स्वश्च भैरवाः ॥ पृथिव्यादीनि सर्वाणि ब्रह्माण्डे सचराचरम् । ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च ईश्वरश्च सदाशिवः ॥ सन्तुष्टाः सर्वतुष्टाश्च यस्तु कन्यां प्रपूजयेत् । अद्याहं शुद्धरूपा हि अन्यलोके च का कथा ॥ कुमारीपूजनं कृत्वा त्रैलोक्यं वशमानयेत् । महाकान्तिर्भवेत्क्षिप्रं सर्वपुण्यफलप्रदम् ॥ ॥ नीलतन्त्र ॥ महाभयार्ति दुर्भिक्षाद्युत्पातानि कुलेश्वरि । दुःस्वप्नमपमृत्युश्च ये चान्ये च समुद्भवाः ॥ कुमारीपूजनादेव न ते च प्रभवन्ति हि । नित्यं क्रमेण देवेशि पूजयेद्विधिपूर्वकम् ॥ घ्नन्ति विघ्नान्पूजिताश्च भयं शत्रून्महोत्कटान् । ग्रहा रोगाः क्षयं यान्ति भूतवेतालपन्नगाः ॥ तावजिप्त्वा पूजयित्वा कन्यां सुन्दरमोहिनीम् । दिव्यभावस्थितं साक्षात्तन्त्रमन्त्रफलं लभेत् ॥ महाविद्या महामन्त्रः सिद्धिमन्त्रो न संशयः । विधियुक्तां कुमारीं तु भोजयेच्चैव भैरव ॥ पाद्यार्घ्यं च तथा धूपं कुङ्कुमं चन्दनं शुभम् । भक्तिभावेन सम्पूज्य कुमारीभ्यो निवेदयेत् ॥ ॥ कुब्जिका तन्त्रे ॥ अन्न वस्त्रं तथा नीरं कुमार्य्यै यो ददाति हि । अन्नं मेरुसमं देव जलं च सागरोपमम् ॥ वस्त्रैः कोटिसहस्राब्दं शिवलोके महीयते । पूजोपकरणानीह कुमार्य्यै यो ददाति हि । सन्तुष्टा देवता तस्य पुत्रत्वे सानुकल्पते ॥ ॥ यामले ॥ बालप्रियं च नैवेद्यं दत्त्वा तद्भावभावितः । मृदा तदङ्गमात्मानं बालभाववितेष्टितम् ॥ अतिप्रियकथालापक्रीडा कौतूहलान्वितः । यथार्थं तत्प्रियं तन्त्रं कृत्वा सिद्धीश्वरो भवेत् ॥ कुसुमाञ्जलिपूर्णं च कन्यायै कुलपण्डितः । ददाति यदि तत्पुष्पं कोटिमेरुहिण्यवत् ॥ तद्दानजं महापुण्यं क्षणादेव समालभेत् । कुमारी भोजिता येन त्रैलोक्यं तेन भोजितम् ॥ कुमारीपूजनं कुर्यात्सर्वकर्मफलाप्तये । सदाभोजनवाञ्छाढ्या मान्या सन्तुष्टहासिनी । वृथा न रौति सा देवी कुमारी देवनायिका ॥ ॥ कुमारी कवचे ॥ साम्राज्यं प्रददाति या भगवती विद्या महालक्षणा साक्षादष्टसमृद्धिदा भुवि महालक्ष्मीः कुलक्षोभहा । स्वाधिष्ठानसुपङ्कजे विलसितां विष्णोरनन्तश्रियं वन्दे राजप्रदां शुभकरीं कौलेश्वरीं सर्वदा ॥

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Thursday, 21 August 2025

શ્રી ગણેશ ઉત્સવ તથા સત્યનારાયણ કથા સામગ્રી

શ્રી ગણેશ મહોત્સવ તેમજ સત્યનારાયણ કથા

                    પૂજા સામગ્રી

📜GrahRaj🌐Astrology📜

અબીલ  ૨૫ ગ્રામ
ગુલાલ  ૨૫ ગ્રામ
કંકુ  ૨૫ ગ્રામ
ચંદન  ૨૫ ગ્રામ
હળદર  ૨૫ ગ્રામ
સરસવ ૨૫ ગ્રામ
નાળા છેડી ૧ નંગ
સુતર દડી ૧નંગ
જનોઈ ૨ નંગ
મધ ૧ શીશી
અંતર ૧ શીશી
કપૂર ગોટી ૫ નંગ
અગરબત્તી ૧ પેકેટ
બાકસ ૧નંગ
ધૂપ ૨૫ ગ્રામ

📜GrahRaj🌐Astrology📜:

ફુલ હાર ૩ નંગ
દુર્વા માલા ૧ નંગ
દુર્વા જુડી ૧ નંગ
છુટા ફુલ ૫૦૦ ગ્રામ
તુલસી પત્ર
નાગરવેલ પાન ૨૦ નંગ

📜GrahRaj🌐Astrology📜

ઘઉં ૧ કિ.
ચોખા ૧ કિ.
ગોળ ૫૦ ગ્રામ
ધાણા ૨૫ ગ્રામ
પડિયા (દુના) ૨૫ નંગ
એલચી ૨૫ ગ્રામ
લવિંગ ૨૫ ગ્રામ
તજ ૨૫ ગ્રામ
પબડી ૨૫ ગ્રામ
સોપારી ૧૦૦ ગ્રામ
કાજુ ૫૦ ગ્રામ
બદામ ૫૦ ગ્રામ
દ્રાક્ષ ૫૦ ગ્રામ
સાકર ૫૦ ગ્રામ

📜GrahRaj🌐Astrology📜

રેશમી ધોતી લાલ ૧ નંગ
કોટન ધોતી સફેદ ૧ નંગ
લાલ કાપડ ૧ મીટર
સફેદ કાપડ ૧ મીટર

📜GrahRaj🌐Astrology📜

થાળી  ૫ નંગ
વાટકી ૫ નંગ
ચમચી ૫ નંગ
કળશ તાંબા ના ૨ નંગ
તપેલી ૧ નંગ
બાજોઠ ( ચોરંગ)૨ નંગ
પાટલા ૨ નંગ
આસન
નેપકીન
છેડા છેડી (ખેશ)ચુંદડી
શ્રી ફળ ૩ નંગ
પ્રસાદ સામગ્રી ૨૫૦ ગ્રામ
ઋતુ ફળ ૫ નંગ
પંચામૃત (દૂધ-દહીં-ખાંડ-મધ-સાકર)
આરતી થાળી ૧ નંગ
પંચ પાત્ર
ત્રભાણુ
આચમની
ગણેશજી ની મુર્તિ (ઘર ની)

📜GrahRaj🌐Astrology📜

ઘી ૫૦૦ ગ્રામ
કાપુસ (ફુલવાટ) ૫૦ ગ્રામ
સિંગ દાણા ૫૦ ગ્રામ
રેવડી ૫૦ ગ્રામ

📜GrahRaj🌐Astrology📜

(સત્યનારાયણ વીશેષ સામગ્રી)
કેળ ના સ્થભ /૪ નંગ
તુલસી જુડી ૨ નંગ
ફૂલ હાર ૨ નંગ
છુટા ફૂલ ૫૦૦ ગ્રામ
ફૂલ લેર ૩ મિટર
આંબા ના પાન ૨૦ નંગ
તોરણ ૨ નંગ
નાગરવેલ પાન ૨૦ નંગ
પ્રસાદ સામગ્રી
ફળ ૫ નંગ
ચોરંગ બાજોઠ ૧ નંગ
પાટલો ૧ નંગ
પંચામૃત
શુદ્ધ જળ પૂજા માટે
ધોતી ૧ નંગ કોટન
ત્રાબા કળશ ૨ નંગ
ચોખા ૨ કિ.
મીઠાઈ ૨૫૦ ગ્રામ


શ્રી ગણેશજી ની મૂર્તિ સમયકાલીન ત્યાર રાખવી.


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देव भूमि द्वारका-३६१३०५

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      ગ્રહરાજ જ્યોતિષ કાર્યાલય
     હરસિધ્ધિ નગર , સલાયા રોડ
જામ ખંભાળિયા - દેવભૂમિ દ્વારકા
              ૯૭૨૭૯૭૨૧૧૯
     શાસ્ત્રી એચ. એચ. રાજ્યગુરૂ
*📜જ્યોતિષ-વાસ્તુ-ધાર્મિકપુજા📜*
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આપનુ જીવન મંગલ મય રહે શુભકામના

                  ||હરિ:ૐ ||


श्री गणेशोत्सव पुजा सामग्री

                  ॥श्रीहरि:॥
  
           " वंन्दे वाणी विनायकौ "

    ॥॥ग्रहराज ज्योतिष कार्यालय॥॥

     * श्री गणेशोत्सव सामग्री स्मृति *  

धउ-1किलो चावल 1 किलो 

चोरंग(बाजोठ) 2 नंग /पाट 2 नंग

अबील 50 ग्राम         एलायची 50 ग्राम
गुलाल 50 ग्राम          लवंग 50 ग्राम       
चंदन   50ग्राम           तज 50 ग्राम 
कुंमकूम50 ग्राम         सोपारि 100 ग्राम
हल्दी 50 ग्राम           काजु 100 ग्राम 
सवोॅषधी 50 ग्राम      बदाम 100 ग्राम 
सिंदुर 50 ग्राम          किसमीस 50 ग्राम
नाणाछेडी 1 नंग       अंजीर 50 ग्राम      
सुतर दडी 1 नंग       सील्वर दुना 50नंग                                जनोइ 3 नंग              साकर 50 ग्राम
अंतर शीशी 1 नंग       गुड़ 50 ग्राम
मध शीशी 1 नंग         धनिया 50 ग्राम
फुल हार 3 नंग           दुवाॅजुड़ी 1 नंग
तुलसी पत्र                  रक्त पुष्प
   छुट्टे पुष्प 500 ग्राम (मिक्स)  
   ऋतुफल 5 नंग         श्रीफल 3 नंग
   नागवली पान 20 नंग     धुप- कापुस  घी
   प्रसाद मिठाई 250 ग्राम
   आरती थाली 1 नंग  
   पंचामृत - (दुध, दहि, घी, मध, साकार)
   रेशमी कापड लाल 1 मीटर 
   रेशमी कापड सफेद 1 मीटर
   धोती सफेद 1 नंग  (6-मीटर)
   धोती   लाल 1 नंग   (6-मीटर )
   त्रांबे - कलश 2 नंग
   श्री गणेशजी मूतिॅ 1 नंग (पुजा हेतु)
   शुद्ध पुजा जल एवं गंगा जल   
   आसन - नेपकिन- उपेणि (ग्रन्थि)

नोधः- अन्य सामग्री एवं व्यवस्था स्वयं जातक करे.
( कृपया गणेश मूतिॅ जल मे विसर्जन हो सके एसेहि रखे)
     
    ॥ग्रहराज ज्योतिष कार्यालय॥

    छाया चोक्की, रोनक कोम्प्लेक्ष 
     पोरबंदर - गुजरात-360575
    कोन्टेक- +919727972119
       शास्त्री  एच . एच . राजगुरु
॥॥ज्योतिष- वास्तु-धामिॅकपुजा ॥॥
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           ॥*हरिॐतत्सत्*॥

Saturday, 16 August 2025

।। श्री शीतलाष्टकं ।।

।।🚩श्री शीतला माता  स्तोत्र🚩।।

      शीतला सप्तमी 2024




अस्य श्रीशीतलास्तोत्रस्य महादेव ऋषिः ।
अनुष्टुप् छन्दः ।  शीतला देवता ।
लक्ष्मीर्बीजम् ।  भवानी शक्तिः ।
सर्वविस्फोटकनिवृत्यर्थे जपे विनियोगः ॥

ईश्वर उवाच ।

वन्देऽहं शीतलां देवीं रासभस्थां दिगम्बराम् ।
मार्जनीकलशोपेतां शूर्पालङ्कृतमस्तकाम् ॥ १॥

वन्देऽहं शीतलां देवीं सर्वरोगभयापहाम्।
यामासाद्य निवर्तेत विस्फोटकभयं महत् ॥ २॥

शीतले शीतले चेति यो ब्रूयद्दाहपीडितः ।
विस्फोटकभयं घोरं क्षिप्रं तस्य प्रणश्यति ॥ ३॥

यस्त्वामुदकमध्ये तु ध्यात्वा सम्पूजयेन्नरः ।
विस्फोटकभयं घोरं गृहे तस्य न जायते ॥ ४॥

शीतले ज्वरदग्धस्य पूतिगन्धयुतस्य च ।
प्रणष्टचक्षुषः पुंसस्त्वामाहुर्जीवनौषधम् ॥ ५॥

शीतले तनुजान् रोगान् नृणां हरसि दुस्त्यजान् ।
विस्फोटकविदीर्णानां त्वमेकाऽमृतवर्षिणी ॥ ६॥

गलगण्डग्रहा रोगा ये चान्ये दारुणा नृणाम् ।
त्वदनुध्यानमात्रेण शीतले यान्ति सङ्क्षयम् ॥ ७॥

न मन्त्रो नौषधं तस्य पापरोगस्य विद्यते ।
त्वामेकां शीतले धात्रीं नान्यां पश्यामि देवताम् ॥ ८॥

मृणालतन्तुसदृशीं नाभिहृन्मध्यसंस्थिताम् ।
यस्त्वां सञ्चिन्तयेद्देवि तस्य मृत्युर्न जायते ॥ ९॥

अष्टकं शीतलादेव्या यो नरः प्रपठेत्सदा ।
विस्फोटकभयं घोरं गृहे तस्य न जायते ॥ १०॥

श्रोतव्यं पठितव्यं च श्रद्धाभाक्तिसमन्वितैः ।
उपसर्गविनाशाय परं स्वस्त्ययनं महत् ॥ ११॥

शीतले त्वं जगन्माता शीतले त्वं जगत्पिता ।
शीतले त्वं जगद्धात्री शीतलायै नमो नमः ॥ १२॥

रासभो गर्दभश्चैव खरो वैशाखनन्दनः ।
शीतलावाहनश्चैव दूर्वाकन्दनिकृन्तनः ॥ १३॥

एतानि खरनामानि शीतलाग्रे तु यः पठेत् ।
तस्य गेहे शिशूनां च शीतलारुङ् न जायते ॥ १४॥

शीतलाष्टकमेवेदं न देयं यस्यकस्यचित् ।
दातव्यं च सदा तस्मै श्रद्धाभक्तियुताय वै ॥ १५॥

॥ इति श्रीस्कन्दपुराणे शीतलाष्टकं सम्पूर्णम् ॥

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श्रीशीतलाकवचम्

पार्वत्युवाच - भगवन् सर्वधर्मज्ञ सर्वशास्त्रविशारद । शीतलाकवचं ब्रूहि सर्वभूतोपकारकम् ॥ १॥ वद शीघ्रं महादेव ! कृपां कुरु ममोपरि । इति देव्याः वचो श्रुत्वा क्षणं ध्यात्वा महेश्वरः ॥ २॥ उवाच वचनं प्रीत्या तत्श‍ृणुष्व मम प्रिये । शीतलाकवचं दिव्यं श‍ृणु मत्प्राणवल्लभे ॥ ३॥ ईश्वर उवाच - शीतलासारसर्वस्वं कवचं मन्त्रगर्भितम् । कवचं विना जपेत् यो वै नैव सिद्धयन्ति कलौ ॥ ४॥ धारणादस्य मन्त्रस्य सर्वरक्षाकरनृणाम् । विनियोगः - कवचस्यास्य देवेशि ! ऋषिर्पोक्तो महेश्वरः । छन्दोऽनुष्टुप् कथितं च देवता शीतला स्मृता । लक्ष्मीबीजं रमा शक्तिः तारं कीलकमीरितम् ॥ ५॥ लूताविस्फोटकादीनि शान्त्यर्थे परिकीर्तितः । विनियोगः प्रकुर्वीत पठेदेकाग्रमानसः ॥ ६॥ विनियोगः - ॐ अस्य शीतलाकवचस्य श्रीमहेश्वर ऋषिः अनुष्टुप्छन्दः, श्रीशीतला भगवती देवता, श्रीं बीजं, ह्रीं शक्तिः, ॐ कीलकं लूताविस्फोटकादिशान्त्यर्थे पाठे विनियोगः ॥ ऋष्यादिन्यासः - श्रीमहेश्वरऋषये नमः शिरसि अनुष्टुप् छन्दसे नमः मुखे, श्रीशीतला भगवती देवतायै नमः हृदि श्री बीजाय नमः गुह्ये ह्रीं शक्तये नमः नाभौ, ॐ कीलकाय नमः पादयो लूताविस्फोटकादिशान्त्यर्थे पाठे विनियोगाय नमः सर्वाङ्गे ॥ ध्यानं - उद्यत्सूर्यनिभां नवेन्दुमुकुटां सूर्याग्निनेत्रोज्ज्वलां नानागन्धविलेपनां मृदुतनुं दिव्याम्बरालङ्कृताम् । दोर्भ्यां सन्दधतीं वराभययुगं वाहे स्थितां रासभे भक्ताभीष्टफलप्रदां भगवतीं श्रीशीतलां त्वां भजे ॥ अथ कवचमूलपाठः - ॐ शीतला पातु मे प्राणे रुनुकी पातु चापाने । समाने झुनुकी पातु उदाने पातु मन्दला ॥ १॥ व्याने च सेढला पातु मनुर्मे शाङ्करी तथा । पातु मामिन्द्रियान् सर्वान् श्रीदुर्गा विन्ध्यवासिनी ॥ २॥ ॐ मम पातु शिरो दुर्गा कमला पातु मस्तकम् । ह्रीं मे पातु भ्रुवोर्मध्ये भवानी भुवनेश्वरी ॥ पातु मे मधुमती देवी ॐकारं भृकुटीद्वयम् ॥ ३॥ नासिकां शारदा पातु तमसा वर्त्मसंयुतम् । नेत्रौ ज्वालामुखी पातु भीषणा पातु श्रुतिर्मे ॥ ४॥ कपोलौ कालिका पातु सुमुखी पातु चोष्ठयोः । सन्ध्ययोः त्रिपुरा पातु दन्ते च रक्तदन्तिका ॥ ५॥ जिह्वां सरस्वती पातु तालुके व वाग्वादिनी । कण्ठे पातु तु मातङ्गी ग्रीवायां भद्रकालिका ॥ ६॥ स्कन्धौ च पातु मे छिन्ना ककुमे स्कन्दमातरः । बाहुयुग्मौ च मे पातु श्रीदेवी बगलामुखी ॥ ७॥ करौ मे भैरवी पातु पृष्ठे पातु धनुर्धरी । वक्षःस्थले च मे पातु दुर्गा महिषमर्दिनी ॥ ८॥ हृदये ललिता पातु कुक्षौ पातु मघेश्वरी । (मघा ईश्वरी) (महेश्वरी) पार्ष्वौ च गिरिजा पातु चान्नपूर्णा तु चोदरम् ॥ ९॥ नाभिं नारायणी पातु कटिं मे सर्वमङ्गला । जङ्घयोर्मे सदा पातु देवी कात्यायनी पुरा ॥ १०॥
ब्रह्माणी शिश्नं पातु वृषणं पातु कपालिनी ।
गुह्यं गुह्येश्वरी पातु जानुनोर्जगदीश्वरी ॥ ११॥

पातु गुल्फौ तु कौमारी पादपृष्ठं तु वैष्णवी ।
वाराही पातु पादाग्रे ऐन्द्राणी सर्वमर्मसु ॥ १२॥

मार्गे रक्षतु चामुण्डा वने तु वनवासिनी ।
जले च विजया रक्षेत् वह्नौ मे चापराजिता ॥ १३॥

रणे क्षेमकरी रक्षेत् सर्वत्र सर्वमङ्गला ।
भवानी पातु बन्धून् मे भार्या रक्षतु चाम्बिका ॥ १४॥

पुत्रान् रक्षतु माहेन्द्री कन्यकां पातु शाम्भवी ।
गृहेषु सर्वकल्याणी पातु नित्यं महेश्वरी ॥ १५॥

पूर्वे कादम्बरी पातु वह्नौ शुक्लेश्वरी तथा ।
दक्षिणे करालिनी पातु प्रेतारुढा तु नैरृते ॥ १६॥

पाशहस्ता पश्चिमे पातु वायव्ये मृगवाहिनी ।
पातु मे चोत्तरे देवी यक्षिणी सिंहवाहिनी ।
ईशाने शूलिनी पातु ऊर्ध्वे च खगगामिनी ॥ १७॥

अधस्तात्वैष्णवी पातु सर्वत्र नारसिंहिका ।
प्रभाते सुन्दरी पातु मध्याह्ने जगदम्बिका ॥ १८॥

सायाह्ने चण्डिका पातु निशीथेऽत्र निशाचरी ।
निशान्ते खेचरी पातु सर्वदा दिव्ययोगिनी ॥ १९॥

वायौ मां पातु वेताली वाहने वज्रधारिणी ।
सिंहा सिंहासने पातु शय्यां च भगमालिनी ॥ २०॥

सर्वरोगेषु मां पातु कालरात्रिस्वरुपिणी ।
यक्षेभ्यो यक्षिणी पातु राक्षसे डाकिनी तथा ॥ २१॥

भूतप्रेतपिशाचेभ्यो हाकिनी पातु मां सदा ।
मन्त्रं मन्त्राभिचारेषु शाकिनी पातु मां सदा ॥ २२॥

सर्वत्र सर्वदा पातु श्रीदेवी गिरिजात्मजा ।
इत्येतत्कथितं गुह्यं शीतलाकवचमुत्तमम् ॥ २३॥

फलश्रुतिः -
ब्रह्मराक्षसवेतालाः कूष्माण्डा दानवादयः ।
विस्फोटकभयं नास्ति पठनाद्धारणाद्यदि ॥ १॥

अष्टसिद्धिप्रदं नित्यं धारणात्कवचस्य तु ।
सहस्त्रपठनात्सिद्धिः सर्वकार्यार्थसिद्धिदम् ॥ २॥

तदर्धं वा तदर्धं वा पठेदेकाग्रमानसः ।
अश्वमेधसहस्रस्य फलमाप्नोति मानवः ॥ ३॥

शीतलाग्रे पठेद्यो वै देवीभक्तैकमानसः ।
शीतला रक्षयेन्नित्यं भयं क्वापि न जायते ॥ ४॥

घटे वा स्थापयेद्देवी दीपं प्रज्वाल्य यत्नतः ।
पूजयेत्जगतां धात्री नाना गन्धोपहारकैः ॥ ५॥

अदीक्षिताय नो दद्यात कुचैलाय दुरात्मने ।
अन्यशिष्याय दुष्टाय निन्दकाय दुरार्थिने ॥ ६॥

न दद्यादिदं वर्म तु प्रमत्तालापशालिने ।
दीक्षिताय कुलीनाय गुरुभक्तिरताय च ॥ ७॥

शान्ताय कुलशाक्ताय शान्ताय कुलकौलिने ।
दातव्यं तस्य देवेशि ! कुलवागीश्वरो भवेत् ॥ ८॥

इदं रहस्यं परमं शीतलाकवचमुत्तमम् ।
गोप्यं गुह्यतमं दिव्यं गोपनीयं स्वयोनिवत् ॥ ९॥

मूलमन्त्रः -  ॐ श्रीं ह्रीं ॐ ।

॥  श्रीईश्वरपार्वतीसम्वादे शक्तियामले शीतलाकवचं सम्पूर्णम् ॥

Friday, 8 August 2025

શંભુ શરણે પડી માંગુ ....

શંભુ શરણે પડી માંગુ...

શંભુ શરણે પડી, માંગુ ઘડી એ ઘડી
કષ્ટ કાપો …
દયા કરી, શિવ, દર્શન આપો … (૨)

તમો ભક્તો ના ભય હરનારા
શુભ સૌવ નુ સદા કરનારા
હું તો મંદ મતી તારી અકળ ગતિ
કષ્ટ કાપો દયા કરી શીવ દર્શન આપો
શંભુ શરણે પડી, માંગુ ઘડી એ ઘડી
કષ્ટ કાપો …
દયા કરી, શિવ, દર્શન આપો … (૨)

અંગે ભસ્મ સ્મશાન ની ચોળી
સંગે રાખો સદા ભુત ટોળી
ભાલે ચંદ્ર ધયૉ કંઠે વિષ ભયૉ
અમૃત આપો
દયા કરી શીવ દર્શન આપો … (૨)

શંભુ શરણે પડી, માંગુ ઘડી એ ઘડી
કષ્ટ કાપો …
દયા કરી, શિવ, દર્શન આપો … (૨)

નેતી નેતી જયાં વેદ કહે છે
મારું ચીતડું ત્યાં જાવા ચહે છે
સારા જગ મા છે તું ,વસુ તારા મા હું
શકિત આપો દયા કરી શીવ દર્શન આપો… (૨)

શંભુ શરણે પડી, માંગુ ઘડી એ ઘડી
કષ્ટ કાપો …
દયા કરી, શિવ, દર્શન આપો … (૨)

આપો દ્રષ્ટી મા તેજ અનોખું
સારી સુષ્ટી મા શીવ રૂપ દેખુ
મારા દિલમાં વસો , આવી હૈયે હસો
શાંતિ સ્થાપો દયા કરી શીવ દર્શન આપો… (૨)

શંભુ શરણે પડી, માંગુ ઘડી એ ઘડી
કષ્ટ કાપો …
દયા કરી, શિવ, દર્શન આપો … (૨)

હું તો એકલ પંથી પ્રવાસી
છતાં આત્મા કેમ ઉદાસી
થાકયો મથી રે મથી , કારણ મળતું નથી
સમજણ આપો દયા કરી શીવ દર્શન આપો … (૨)

શંભુ શરણે પડી, માંગુ ઘડી એ ઘડી
કષ્ટ કાપો …
દયા કરી, શિવ, દર્શન આપો … (૨)

શંકરદાસ નુ ભવ દુખ કાપો
નિત્ય સેવા નુ શુભ ફળ આપો
ટાળો મંદ મતિ , ગાળો ગવઁ ગતિ
ભક્તિ આપો દયા કરી શીવ દર્શન આપો
શંભુ શરણે પડી,  માંગુ ઘડી એ ઘડી
કષ્ટ કાપો …
દયા કરી, શિવ, દર્શન આપો … (૨)


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હરિ ૐ આ લેખ સર્વે ભક્તો નું કલ્યાણ અર્થે તેમજ શ્રાવણ માસ માં ભગવાન ની અલગ અલગ ધૂન આરતી  કિર્તન ગાઈ શકે એ હેતુ થી મુકેલ છે.
 વિશેષ પ્રસ્તુત સામગ્રી અમારી ખુદ ની નથી.

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Monday, 28 July 2025

।। बिल्वाष्टक ।।

ॐ नमः शिवाय        ॥ बिल्वाष्टक ॥     ॐ नमः शिवाय


त्रिदलं त्रिगुणाकारं त्रिनेत्रं च त्रियायुधम् । त्रिजन्मपापसंहारं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ १॥

त्रिशाखैः बिल्वपत्रैश्च ह्यच्छिद्रैः कोमलैः शुभैः । शिवपूजां करिष्यामि ह्येकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ २॥

अखण्ड बिल्व पत्रेण पूजिते नन्दिकेश्वरे । शुद्ध्यन्ति सर्वपापेभ्यो ह्येकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ ३॥

शालिग्राम शिलामेकां विप्राणां जातु चार्पयेत् । सोमयज्ञ महापुण्यं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ ४॥

दन्तिकोटि सहस्राणि वाजपेय शतानि च । कोटिकन्या महादानं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ ५॥

लक्ष्म्यास्तनुत उत्पन्नं महादेवस्य च प्रियम् । बिल्ववृक्षं प्रयच्छामि ह्येकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ ६॥

दर्शनं बिल्ववृक्षस्य स्पर्शनं पापनाशनम् । अघोरपापसंहारं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ ७॥

काशीक्षेत्रनिवासं च कालभैरवदर्शनम् । प्रयागमाधवं दृष्ट्वा ह्येकबिल्वं शिवार्पणम् ॥

मूलतो ब्रह्मरूपाय मध्यतो विष्णुरूपिणे । अग्रतः शिवरूपाय ह्येकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ ८॥

बिल्वाष्टकमिदं पुण्यं यः पठेत् शिवसन्निधौ । सर्वपाप विनिर्मुक्तः शिवलोकमवाप्नुयात् ॥

॥ इति १ बिल्वाष्टकम्  ॥

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॥ बिल्वाष्टकम् २ ॥

त्रिदलं त्रिगुणाकारं त्रिणेत्रं च त्रियायुधम् ।
त्रिजन्मपापसंहारं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ १॥

त्रिशाकैर्बिल्वपत्रैश्च अच्छिद्रैः कोमलैश्शुभैः ।
तव पूजां करिष्यामि एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ २॥

दर्शनं बिल्ववृक्षस्य स्पर्शनं पापनाशनम् ।
अघोरपापसंहारं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ ३॥

काशीक्षेत्रनिवासं च कालभैरवदर्शनम् ।
प्रयागे माधवं दृष्ट्वा एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ ४॥

तुलसी बिल्वनिर्गुण्डी जंबीरामलकं तथा ।
पञ्चबिल्वमिति ख्याता  एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ ५॥

तटाकं धननिक्षेपं ब्रह्मस्थाप्यं शिवालयम् ।
कोटिकन्यामहादानं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ ६॥

दन्त्यश्वकोटिदानानि अश्वमेधशतानि च ।
कोटिकन्यामहादानं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ ७॥

सालग्रामसहस्राणि विप्रान्नं शतकोटिकम् ।
यज्ञकोटिसहस्राणि एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ ८॥

अज्ञानेन कृतं पापं ज्ञानेनापि कृतं च यत् ।
तत्सर्वं नाशमायातु एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ ९॥

एकैकबिल्वपत्रेण कोटियज्ञफलं लभेत् ।
महादेवस्य पूजार्थं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ १०॥

अमृतोद्भववृक्षस्य महादेवप्रियस्य च ।
मुच्यन्ते कण्टकाघाता कण्टकेभ्यो हि मानवाः ॥ ११॥

             ॥ ॐ तत्सत् ॥

         हर हर महादेव हर हर
        Jai Shree Krishna
           जय श्री द्वारकाधीश

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Saturday, 26 July 2025

🚩।। श्रीशुक्लयजुर्वेदीय सस्वर रुद्राष्टाध्यायी ।।🚩

श्रीशुक्लयजुर्वेदीय सस्वर रुद्राष्टाध्यायी

॥ ॐ श्री गणेशाय नमः ॥

मङ्गलाचरणम्

वन्दे सिद्धिप्रदं देवं गणेशं प्रियपालकम् । विश्वगर्भं च विघ्नेशं अनादिं मङ्गलं विभूम् ॥ अथ ध्यानम् - ध्यायेन्नित्यं महेशं रजतगिरिनिभं चारु चन्द्रवतंसम् । रत्नाकल्पोज्ज्वलाङ्गं परशुमृगवराभीतिहस्तं प्रसन्नम् ॥ १॥ पद्मासीनं समन्तात्स्तुतममरगणैर्व्याघ्रकृतिं वसानम् । विश्वाद्यं विश्ववन्द्यं निखिलभयहरं पञ्चवक्त्रं त्रिनेत्रम् ॥ २॥

अथ प्रथमोऽध्यायः ।

हरिः॑ ॐ ग॒णानां॑ त्वा ग॒णप॑तिꣳ हवामहे प्रि॒याणां॑ त्वा प्रि॒यप॑तिꣳ हवामहे नि॒धीनां॑ त्वा॑ निधि॒पति॑ꣳ हवामहे वसो मम । आहम॑जानि गर्भ॒धमा त्वम॑जासि गर्भ॒धम् ॥ १॥ गा॒य॒त्री त्रि॒ष्टुब्जग॑त्यनु॒ष्टुप्प॒ङ्क्त्या स॒ह । बृ॒ह॒त्युष्णिहा॑ क॒कुप्सू॒चीभिः॑ शम्यन्तु त्वा ॥ २॥ द्विप॑दा॒याश्चतु॑ष्पदा॒स्त्रिप॑दा॒याश्च॒षट्प॑दाः । विच्छ॑न्दा॒ याश्च॒ सच्छ॑न्दाः सू॒चीभिः॑ शम्यन्तु त्वा ॥ ३॥ स॒हस्तो॑माः स॒हच्छ॑न्दस आ॒वृतः॑ स॒हप्र॑मा॒ ऋष॑यः स॒प्त दै॑व्याः । पूर्वे॑षां॒ पन्था॑मनु॒दृश्य॒ धीरा॑ अ॒न्वाले॑भिरे र॒थ्यो न र॒श्मीन् ॥ ४॥ शिवसङ्कल्पसूक्तम् । यज्जाग्र॑तो दू॒रमु॒दैति॒ दैवं॒ तदु॑ सु॒प्तस्य॒ तथै॒वैति॑ । दू॒र॒ङ्ग॒मं ज्योति॑षां॒ ज्योति॒रेकं॒ तन्मे॒ मनः॑ शि॒वस॑ङ्कल्पमस्तु ॥ १॥ येन॒ कर्मा॑ण्य॒पसो॑ मनी॒षिणो॑ य॒ज्ञे कृ॒ण्वन्ति॑ वि॒दथे॑षु॒ धीराः॑ । यद॑पू॒र्वं य॒क्षम॒न्तः प्र॒जानां॒ तन्मे॒ मनः॑ शि॒वस॑ङ्कल्पमस्तु ॥ २॥ यत्प्र॒ज्ञान॑मु॒त चेतो॒ धृति॑श्च॒ यज्ज्योति॑र॒न्तर॒मृतं॑ प्र॒जासु॑ । यस्मा॒न्नऽऋ॒ते किं च॒न कर्म॑ क्रि॒यते॒ तन्मे॒ मनः॑ शि॒वस॑ङ्कल्पमस्तु ॥ ३॥ येने॒दं भू॒तं भुव॑नं भवि॒ष्यत्परि॑गृहीतम॒मृते॑न॒ सर्व॑म् । येन॑ य॒ज्ञस्ता॒यते॑ स॒प्तहो॑ता॒ तन्मे॒ मनः॑ शि॒वस॑ङ्कल्पमस्तु ॥ ४॥ यस्मि॒न्नृचः॒ साम॒ यजू॑ꣳषि॒ यस्मि॒न् प्रति॑ष्ठिता रथना॒भावि॑वा॒राः । यस्मि॑ꣳश्चि॒त्तꣳ सर्व॒मोतं॑ प्र॒जानां॒ तन्मे॒ मनः॑ शि॒वस॑ङ्कल्पमस्तु ॥ ५॥ सु॒षा॒र॒थिरश्वा॑निव॒ यन्म॑नु॒ष्या॒न्नेनी॒यते॒ऽभीशु॑भिर्वा॒जिन॑ इव । हृ॒त्प्रति॑ष्ठं॒ यद॑जि॒रं जवि॑ष्ठं॒ तन्मे॒ मनः॑ शि॒वस॑ङ्कल्पमस्तु ॥ ६॥ इति रुद्रे प्रथमोऽध्यायः ॥ १॥

अथ द्वितीयोऽध्यायः ।

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        (पुरुषसूक्तम् ।)
          हरिः॑ ॐ
स॒हस्र॑शीर्षा॒ पुरु॑षः सहस्रा॒क्षः स॒हस्र॑पात् ।
स भूमि॑ꣳ स॒र्वतः॑ स्पृ॒त्वात्य॑तिष्ठद्दशाङ्गु॒लम् ॥ १॥

पुरु॑ष ए॒वेदꣳ सर्वं॒ यद्भू॒तं यच्च॑ भा॒व्य॒म् ।
उ॒तामृ॑त॒त्वस्येशा॑नो॒ यदन्ने॑नाति॒रोह॑ति ॥ २॥

ए॒तावा॑नस्य महि॒मातो॒ ज्यायाँ॑श्च॒ पूरु॑षः ।
पादो॑ऽस्य॒ विश्वा॑ भू॒तानि॑ त्रि॒पाद॑स्या॒मृतं॑ दि॒वि ॥ ३॥

त्रि॒पादू॒र्ध्व उदै॒त्पुरु॑षः॒ पादो॑ऽस्ये॒हाभ॑व॒त्पुनः॑ ।
ततो॒ विष्व॒ङ् व्य॒क्रामत्साशनानश॒ने अ॒भि ॥ ४॥

ततो॑ वि॒राड॑जायत वि॒राजो॒ अधि॒ पूरु॑षः ।
स जा॒तो अत्य॑रिच्यत प॒श्चाद्भूमि॒मथो॑ पु॒रः ॥ ५॥

तस्मा॑द्य॒ज्ञात्स॑र्व॒हुतः॒ सम्भृ॑तं पृषदा॒ज्यम् ।
प॒शूँस्ताँश्च॑क्रे वाय॒व्या॒नार॒ण्या ग्रा॒म्याश्च॒ ये ॥ ६॥

तस्मा॑द्य॒ज्ञात्स॑र्व॒हुत॒ ऋचः॒ सामा॑नि जज्ञिरे ।
छन्दा॑ꣳसि जज्ञिरे॒ तस्मा॒द्यजु॒स्तस्मा॑दजायत ॥ ७॥

तस्मा॒दश्वा॑ अजायन्त॒ ये के चो॑भ॒याद॑तः ।
गावो॑ ह जज्ञिरे॒ तस्मा॒त्तस्मा॑ज्जा॒ता अ॑जा॒वयः॑ ॥ ८॥

तं य॒ज्ञं ब॒र्हिषि॒ प्रौक्ष॒न्पुरु॑षं जा॒तम॑ग्र॒तः ।
तेन॑ दे॒वा अ॑यजन्त सा॒ध्या ऋष॑यश्च॒ ये ॥ ९॥

यत्पुरु॑षं॒ व्यद॑धुः कति॒धा व्य॑कल्पयन् ।
मुखं॒ किम॑स्यासी॒त् किं बा॒हू किमू॒रू पादा॑ उच्येते ॥ १०॥

ब्रा॒ह्म॒णो॒ऽस्य॒ मुख॑मासीद्बा॒हू रा॑ज॒न्यः॒ कृ॒तः ।
ऊ॒रू तद॑स्य॒ यद्वै॑श्यः प॒द्भ्याꣳ शू॒द्रो अ॑जायत ॥ ११॥

च॒न्द्रमा॒ मन॑सो जा॒तश्चक्षोः॒ सूर्यो॑ अजायत ।
श्रोत्रा॑द्वा॒युश्च॑ प्रा॒णश्च॒ मुखा॑द॒ग्निर॑जायत ॥ १२॥

नाभ्या॑ आसीद॒न्तरि॑क्षꣳ शी॒र्ष्णो द्यौः॒ सम॑वर्तत ।
प॒द्भ्यां भूमि॒र्दिशः॒ श्रोत्रा॒त्तथा॑ लो॒काँ२ ॥ अ॑कल्पयन् ॥ १३॥

यत्पुरु॑षेण ह॒विषा॑ दे॒वा य॒ज्ञमत॑न्वत ।
व॒स॒न्तो॒ऽस्यासी॒दाज्यं॑ ग्री॒ष्म इ॒ध्मः श॒रद्ध॒विः ॥ १४॥

स॒प्तास्या॑सन्परि॒धय॒स्त्रिःस॒प्त स॒मिधः॑ कृ॒ताः ।
दे॒वा यद्य॒ज्ञं त॑न्वा॒ना अब॑ध्न॒न् पुरु॑षं प॒शुम् ॥ १५॥

य॒ज्ञेन॑ य॒ज्ञम॑यजन्त दे॒वास्तानि॒ धर्मा॑णि प्रथ॒मान्या॑सन् ।
ते ह॒ नाकं॑ महि॒मानः॑ सचन्त॒ यत्र॒ पूर्वे॑ सा॒ध्याः सन्ति॑ दे॒वाः ॥ १६॥

अ॒द्भ्यः सम्भृ॑तः पृथिव्यै॒ रसा॑च्च वि॒श्वक॑र्मणः॒ सम॑वर्त॒ताग्रे॑ ।
तस्य॒ त्वष्टा॑ वि॒दध॑द्रू॒पमे॑ति॒ तन्मर्त्य॑स्य देव॒त्वमा॒जान॒मग्रे॑ ॥ १७॥

वेदा॒हमे॒तं पुरु॑षं म॒हान्त॑मादि॒त्यव॑र्णं॒ तम॑सः प॒रस्ता॑त् ।
तमे॒व वि॑दि॒त्वाऽति॑ मृ॒त्युमे॑ति॒ नान्यः पन्था॑ विद्य॒तेऽय॑नाय ॥ १८॥

प्र॒जाप॑तिश्च॒रति॒ गर्भे॑ अ॒न्तरजा॑यमानो बहु॒धा वि जा॑यते ।
तस्य॒ योनिं॒ परि॑पश्यन्ति॒ धीरा॒स्तस्मि॑न्ह तस्थु॒र्भुव॑नानि॒ विश्वा॑ ॥ १९॥

यो दे॒वेभ्य॑ आ॒तप॑ति॒ यो दे॒वानां॑ पु॒रोहि॑तः ।
पूर्वो॒ यो दे॒वेभ्यो॑ जा॒तो नमो॑ रु॒चाय॒ ब्राह्म॑ये ॥ २०॥

रु॒चं ब्रा॒ह्म्यं ज॒नय॑न्तो दे॒वा अग्रे॒ तद॑ब्रुवन् ।
यस्त्वै॒वं ब्रा॑ह्म॒णो वि॒द्यात्तस्य॑ दे॒वा अ॑स॒न्वशे॑ ॥ २१॥

श्रीश्च॑ ते ल॒क्ष्मीश्च॒ पत्न्या॑वहोरा॒त्रे पा॒र्श्वे नक्ष॑त्राणि रू॒पम॒श्विनौ॒ व्यात्त॑म् ।
इ॒ष्णन्नि॑षाणा॒मुं म॑ इषाण सर्वलो॒कं म॑ इषाण ॥ २२॥

इति रुद्रे द्वितीयोऽध्यायः ॥  २॥

अथ तृतीयोऽध्यायः ।

GrahRaj Astrology ज्योतिष-वास्तु-धार्मिकपूजा

(अप्रतिरथसूक्तम् ।) हरि॑ ॐ आ॒शुः शिशा॑नो वृष॒भो न भी॒मो घ॑नाघ॒नः क्षोभ॑णश्चर्षणी॒नाम् । सं॒क्रन्द॑नोऽनिमि॒ष ए॑कवी॒रः श॒तꣳ सेना॑ अजयत्सा॒कमिन्द्रः॑ ॥ १॥ सं॒क्रन्द॑नेनाऽनिमि॒षेण॑ जि॒ष्णुना॑ युत्का॒रेण॑ दुश्च्यव॒नेन॑ धृ॒ष्णुना॑ । तदिन्द्रे॑ण जयत॒ तत्स॑हध्वं॒ युधो॑ नर॒ इषु॑हस्तेन॒ वृष्णा॑ ॥ २॥ स इषु॑हस्तैः॒ स नि॑ष॒ङ्गिभि॑र्व॒शी सꣳस्र॑ष्टा॒ स युध॒ इन्द्रो॑ ग॒णेन॑ । स॒ꣳसृष्ट॒जित्सो॑म॒पा बा॑हुश॒र्ध्युग्रध॑न्वा॒ प्रति॑हिताभि॒रस्ता॑ ॥ ३॥ बृह॑स्पते॒ परि॑दीया॒ रथे॑न रक्षो॒हामित्रा॑ँ२ अप॒बाध॑मानः । प्र॒भ॒ञ्जन्त्सेनाः॑ प्रमृ॒णो यु॒धा जय॑न्न॒स्माक॑मेध्यवि॒ता रथा॑नाम् ॥ ४॥ ब॒ल॒वि॒ज्ञा॒यः स्थवि॑रः॒ प्रवी॑रः॒ सह॑स्वान्वा॒जी सह॑मान उ॒ग्रः । अ॒भिवी॑रो अ॒भिस॑त्वा सहो॒जा जै॑त्रमिन्द्र॒ रथ॒माति॑ष्ठ गो॒वित् ॥ ५॥ गो॒त्र॒भिदं॑ गो॒विदं॒ वज्र॑बाहुं॒ जय॑न्त॒मज्म॑ प्रमृ॒णन्त॒मोज॑सा । इ॒मꣳ स॑जाता॒ अनु॑ वीरयध्व॒मिन्द्र॑ꣳ सखायो॒ अनु॒ सꣳर॑भध्वम् ॥ ६॥ अ॒भि गो॒त्राणि॒ सह॑सा॒ गाह॑मानोऽद॒यो वी॒रः श॒तम॑न्यु॒रिन्द्रः॑ । दु॒श्च्य॒व॒नः पृ॑तना॒षाड॑यु॒ध्योऽस्माक॒ꣳ सेना॑ अवतु॒ प्र यु॒त्सु ॥ ७॥ इन्द्र॑ आसां ने॒ता बृह॒स्पति॒र्दक्षि॑णा य॒ज्ञः पु॒र ए॑तु॒ सोमः॑ । दे॒व॒से॒नाना॑मभिभञ्जती॒नां जय॑न्तीनां म॒रुतो॑ य॒न्त्वग्र॑म् ॥ ८॥ इन्द्र॑स्य॒ वृष्णो॒ वरु॑णस्य॒ राज्ञ॑ आदि॒त्यानां॑ म॒रुता॒ꣳ शर्ध॑ उ॒ग्रम् । म॒हाम॑नसां भुवनच्य॒वानां॒ घोषो॑ दे॒वानां॒ जय॑ता॒मुद॑स्थात् ॥ ९॥ उद्ध॑र्षय मघव॒न्नायु॑धा॒न्युत्सत्व॑नां माम॒कानां॒ मना॑ꣳसि । उद्वृ॑त्रहन्वा॒जिनां॒ वाजि॑ना॒न्युद्रथा॑नां॒ जय॑तां यन्तु॒ घोषाः॑ ॥ १०॥ अ॒स्माक॒मिन्द्रः॒ समृ॑तेषु ध्व॒जेष्व॒स्माकं॒ या इष॑व॒स्ता ज॑यन्तु । अ॒स्माकं॑ वी॒रा उत्त॑रे भवन्त्व॒स्माँ२ उ॑ देवा अवता॒ हवे॑षु ॥ ११॥ अ॒मीषां॑ चि॒त्तं प्र॑तिलो॒भय॑न्ती गृहा॒णाङ्गा॑न्यप्वे॒ परे॑हि । अ॒भि प्रेहि॒ निर्द॑ह हृ॒त्सु शोकै॑र॒न्धेना॒मित्रा॒स्तम॑सा सचन्ताम् ॥ १२॥ अव॑सृष्टा॒ परा॑पत॒ शर॑व्ये॒ ब्रह्म॑सꣳशिते । गच्छा॒मित्रा॒न्प्रप॑द्यस्व॒ मामीषाङ्कञ्चनोच्छि॑षः ॥ १३॥ प्रेता॒ जय॑ता नर॒ इन्द्रो॑ वः॒ शर्म॑ यच्छतु । उ॒ग्रा वः॑ सन्तु बा॒हवो॑ऽनाधृ॒ष्या यथास॑थ ॥ १४॥ असौ॒ या सेना॑ मरुतः॒ परे॑षाम॒भ्यैति॑ न॒ ओज॑सा॒ स्पर्ध॑माना । तां गू॑हत॒ तम॒साऽप॑व्रतेन॒ यथा॒मी अ॒न्यो अ॒न्यं न जा॒नन् ॥ १५॥ यत्र॑ बा॒णाः स॒म्पत॑न्ति कुमा॒रा वि॑शि॒खा इ॑व । तन्न॒ इन्द्रो॒ बृह॒स्पति॒रदि॑तिः॒ शर्म॑ यच्छतु वि॒श्वाहा॒ शर्म॑ यच्छतु ॥ १६॥ मर्मा॑णि ते॒ वर्म॑णा छादयामि॒ सोम॑स्त्वा॒ राजा॒ऽमृते॒नानु॑वस्ताम् । उ॒रोर्वरी॑यो॒ वरु॑णस्ते कृणोतु॒ जय॑न्तं॒ त्वानु॑ दे॒वा म॑दन्तु ॥ १७॥ इति रुद्रे तृतीयोऽध्यायः ॥ ३॥ GrahRaj Astrology ज्योतिष-वास्तु-धार्मिकपूजा

अथ चतुर्थोऽध्यायः

(सौरसूक्तम् / सूर्यसूक्तम् / मित्रसूक्तम् / मैत्रसूक्तम् ।) हरिः॑ ॐ वि॒भ्राड्बृ॒हत्पि॑बतु सो॒म्यं मध्वायु॒र्दध॑द्य॒ज्ञप॑ता॒ववि॑ह्रुतम् । वात॑जूतो॒ यो अ॑भि॒रक्ष॑ति॒ त्मना॑ प्र॒जाः पु॑पोष पुरु॒धा वि रा॑जति ॥ १॥ उदु॒ त्यं जा॒तवे॑दसं दे॒वं व॑हन्ति के॒तवः॑ । दृ॒शे विश्वा॑य॒ सूर्य॑म् ॥ २॥ येना॑ पावक॒ चक्ष॑सा भुर॒ण्यन्तं॒ जनाँ॒२ ॥ अनु॑ । त्वं व॑रुण॒ पश्य॑सि ॥ ३॥ दैव्या॑वध्वर्यू॒ आग॑त॒ꣳ रथे॑न॒ सूर्य॑त्वचा । मध्वा॑ य॒ज्ञꣳ सम॑ञ्जाथे । तं प्र॒त्नथा॒ऽयं वे॒नश्चि॒त्रं दे॒वाना॑म् ॥ ४॥ तं प्र॒त्नथा॑ पू॒र्वथा॑ वि॒श्वथे॒मथा॑ ज्ये॒ष्ठता॑तिं बर्हि॒षद॑m+स्व॒र्विद॑म् । प्र॒ती॒ची॒नं वृ॒जनं॑ दोहसे॒ धुनि॑मा॒शुं जय॑न्त॒मनु॒ यासु॒ वर्ध॑से ॥ ५॥ अ॒यं वे॒नश्चो॑दय॒त्पृश्नि॑गर्भा॒ ज्योति॑र्जरायू॒ रज॑सो वि॒माने॑ । इ॒मम॒पाꣳस॑ङ्ग॒मे सूर्य॑स्य॒ शिशुं॒न विप्रा॑ म॒तिभी॑ रिहन्ति ॥ ६॥ चि॒त्रं दे॒वाना॒मुद॑गा॒दनी॑कं॒ चक्षु॑र्मि॒त्रस्य॒ वरु॑णस्या॒ग्नेः । आप्रा॒ द्यावा॑पृथि॒वी अ॒न्तरि॑क्षꣳ सूर्य॑ आ॒त्मा जग॑तस्त॒स्थुष॑श्च ॥ ७॥ आ न॒ इडा॑भिर्वि॒दथे॑ सुश॒स्ति वि॒श्वान॑रः सवि॒ता दे॒व ए॑तु । अपि॒ यथा॑ युवानो॒ मत्स॑था नो॒ विश्वं॒ जग॑दभिपि॒त्वे म॑नी॒षा ॥ ८॥ यद॒द्य कच्च॑ वृत्रहन्नु॒दगा॑ अ॒भि सू॑र्य । सर्वं॒ तदि॑न्द्र ते॒ वशे॑ ॥ ९॥ त॒रणि॑र्वि॒श्वद॑र्शतो ज्योति॒ष्कृद॑सि सूर्य । विश्व॒मा भा॑सि रोच॒नम् ॥ १०॥ तत्सूर्य॑स्य देव॒त्वं तन्म॑हि॒त्वं म॒ध्या कर्तो॒र्वित॑त॒ꣳ सं ज॑भार । य॒देदयु॑क्त ह॒रितः॑ स॒धस्था॒दाद्रात्री॒ वास॑स्तनुते सि॒मस्मै॑ ॥ ११॥ तन्मि॒त्रस्य॒ वरु॑णस्याभि॒चक्षे॒ सूर्यो॑ रू॒पं कृ॑णुते॒ द्योरु॒पस्थे॑ । अ॒न॒न्तम॒न्यद्रुश॑दस्य॒ पाजः॑ कृ॒ष्णम॒न्यद्ध॒रितः॒ सं भ॑रन्ति ॥ १२॥ बण्म॒हाँ२ ॥ अ॑सि सूर्य॒ बडा॑दित्य म॒हाँ२ ॥ अ॑सि । म॒हस्ते॑ स॒तो म॑हि॒मा प॑नस्यते॒ऽद्धा दे॑व म॒हाँ२ ॥ अ॑सि ॥ १३॥ बट् सू॑र्य॒ श्रव॑सा म॒हाँ२ ॥ अ॑सि । स॒त्रा दे॑व म॒हाँ२ ॥ अ॑सि । म॒ह्ना दे॒वाना॑मसु॒र्यः॒ पु॒रोहि॑तो वि॒भु ज्योति॒रदा॑भ्यम् ॥ १४॥ श्राय॑न्त इव॒ सूर्यं॒ विश्वेदिन्द्र॑स्य भक्षत । वसू॑नि जा॒ते जन॑मान॒ ओज॑सा॒ प्रति॑ भा॒गं न दी॑धिम ॥ १५॥ अ॒द्या दे॑वा॒ उदि॑ता॒ सूर्य॑स्य॒ निरꣳह॑सः पिपृ॒ता निर॑व॒द्यात् । तन्नो॑ मि॒त्रो वरु॑णो मामहन्ता॒मदि॑तिः॒ सिन्धुः॑ पृथि॒वी उ॒त द्यौः ॥ १६॥ आ कृ॒ष्णेन॒ रज॑सा॒ वर्त॑मानो निवे॒शय॑न्न॒मृतं॒ मर्त्यं॑ च । हि॒र॒ण्यये॑न सवि॒ता रथे॒ना दे॒वो या॑ति॒ भुव॑नानि॒ पश्य॑न् ॥ १७॥ इति रुद्रे चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४॥
GrahRaj Astrology ज्योतिष-वास्तु-धार्मिकपूजा

अथ पञ्चमोऽध्यायः ।

(रुद्रसूक्तम् / नीलसूक्तम् ।) हरिः॑ ॐ नम॑स्ते रुद्र म॒न्यव॑ उ॒तो त॒ इष॑वे॒ नमः॑ । बा॒हुभ्या॑मु॒त ते॒ नमः॑ ॥ १॥ या ते॑ रुद्र शि॒वा त॒नूरघो॒राऽपा॑पकाशिनी । तया॑ नस्त॒न्वा शन्त॑मया॒ गिरि॑शन्ता॒भि चा॑कशीहि ॥ २॥ यामिषुं॑ गिरिशन्त॒ हस्ते॑ बि॒भर्ष्यस्त॑वे । शि॒वां गि॑रित्र॒ तां कु॑रु॒ मा हि॑ꣳसीः॒ पुरु॑षं॒ जग॑त् ॥ ३॥ शि॒वेन॒ वच॑सा त्वा गिरि॒शाऽच्छा॑वदामसि । यथा॑ नः॒ सर्व॒मिज्जग॑दय॒क्ष्मꣳ सु॒मना॒ अस॑त् ॥ ४॥ अध्य॑वोचदधिव॒क्ता प्र॑थ॒मो दैव्यो॑ भि॒षक् । अही॑ꣳश्च॒ सर्वा॑ञ्ज॒म्भय॒न्त्सर्वा॑श्च यातुधा॒न्यो॒ऽध॒राचीः॒ परा॑सुव ॥ ५॥ असौ॒ यस्ता॒म्रो अ॑रु॒ण उ॒त ब॒भ्रुः सु॑म॒ङ्गलः॑ । ये चै॑नꣳ रु॒द्रा अ॒भितो॑ दि॒क्षु श्रि॒ताः स॑हस्र॒शोऽवै॑षा॒ꣳ हेड॑ ईमहे ॥ ६॥ असौ॒ यो॑ऽव॒सर्प॑ति॒ नील॑ग्रीवो॒ विलो॑हितः । उ॒तैनं॑ गो॒पा अ॑दृश्र॒न्नदृ॑श्रन्नुदहा॒र्यः स दृ॒ष्टो मृ॑डयाति नः ॥ ७॥ नमो॑ऽस्तु॒ नील॑ग्रीवाय सहस्रा॒क्षाय॑ मी॒ढुषे॑ । अथो॒ ये अ॑स्य॒ सत्वा॑नो॒ऽहं तेभ्यो॑ऽकरं॒ नमः॑ ॥ ८॥ प्रमु॑ञ्च॒ धन्व॑न॒स्त्वमु॒भयो॒रार्त्न्यो॒र्ज्याम् । याश्च॑ ते॒ हस्त॒ इष॑वः॒ परा॒ ता भ॑गवो वप ॥ ९॥ विज्यं॒ धनुः॑ कप॒र्दिनो॒ विश॑ल्यो॒ बाण॑वाँ२ ॥ उ॒त । अने॑शन्नस्य॒ या इष॑व आ॒भुर॑स्य निषङ्ग॒धिः ॥ १०॥ या ते॑ हे॒तिर्मी॑ढुष्टम॒ हस्ते॑ ब॒भूव॑ ते॒ धनुः॑ । तया॒स्मान्वि॒श्वत॒स्त्वम॑य॒क्ष्मया॒ परि॑भुज ॥ ११॥ परि॑ ते॒ धन्व॑नो हे॒तिर॒स्मान्वृ॑णक्तु वि॒श्वतः॑ । अथो॒ य इ॑षु॒धिस्तवा॒रे अ॒स्मन्निधे॑हि॒ तम् ॥ १२॥ अ॒व॒तत्य॒ धनु॒ष्ट्वꣳ सह॑स्राक्ष॒ शते॑षुधे । नि॒शीर्य॑ श॒ल्यानां॒ मुखा॑ शि॒वो नः॑ सु॒मना॑ भव ॥ १३॥ नम॑स्त॒ आयु॑धा॒याना॑तताय धृ॒ष्णवे॑ । उ॒भाभ्या॑मु॒त ते॒ नमो॑ बा॒हुभ्यां॒ तव॒ धन्व॑ने ॥ १४॥ मा नो॑ म॒हान्त॑मु॒त मा नो॑ अर्भ॒कं मा न॒ उक्ष॑न्तमु॒त मा न॑ उक्षि॒तम् । मा नो॑ वधीः पि॒तरं॒ मोत॑ मा॒तरं॒ मा नः॑ प्रि॒यास्त॒न्वो॒ रुद्र रीरिषः ॥ १५॥ मा न॑स्तो॒के तन॑ये॒ मा न॒ आयु॑षि॒ मा नो॒ गोषु॒ मा नो॒ अश्वे॑षु रीरिषः । मा नो॑ वी॒रान् रु॑द्र भा॒मिनो॑ वधीर्ह॒विष्म॑न्तः॒ सद॒मित्त्वा॑ हवामहे ॥ १६॥ नमो॒ हिर॑ण्यबाहवे सेना॒न्ये॒ दि॒शां च॒ पत॑ये॒ नमो॒ नमो॑ वृ॒क्षेभ्यो॒ हरि॑केशेभ्यः पशू॒नां पत॑ये॒ नमो॒ नमः॑ श॒ष्पिञ्ज॑राय॒ त्विषी॑मते पथी॒नां पत॑ये॒ नमो॒ नमो॒ हरि॑केशायोपवी॒तिने॑ पु॒ष्टानां॒ पत॑ये॒ नमः॑ ॥ १७॥ नमो॑ बभ्लु॒शाय॑ व्या॒धिनेऽन्ना॑नां॒ पत॑ये॒ नमो॒ नमो॑ भ॒वस्य॑ हेत्यै॒ जग॑तां॒ पत॑ये॒ नमो॒ नमो॑ रु॒द्राया॑तता॒यिने॒ क्षेत्रा॑णां॒ पत॑ये॒ नमो॒ नमः॑ सू॒तायाह॑न्त्यै॒ वना॑नां॒ पत॑ये॒ नमः॑ ॥ १८॥ नमो॒ रोहि॑ताय स्थ॒पत॑ये वृ॒क्षाणां॒ पत॑ये॒ नमो॒ नमो॑ भुव॒न्तये॑ वारिवस्कृ॒तायौष॑धीनां॒ पत॑ये॒ नमो॒ नमो॑ म॒न्त्रिणे॑ वाणि॒जाय॒ कक्षा॑णां॒ पत॑ये॒ नमो॒ नम॑ उ॒च्चैर्घो॑षायाक्र॒न्दय॑ते पत्ती॒नां पत॑ये॒ नमः॑ ॥ १९॥ नमः॑ कृत्स्नाय॒तया॒ धाव॑ते॒ सत्व॑नां॒ पत॑ये॒ नमो॒ नमः॒ सह॑मानाय निव्या॒धिन॑ आव्या॒धिनी॑नां॒ पत॑ये॒ नमो॒ नमो॑ निष॒ङ्गिणे॑ ककु॒भाय॑ स्ते॒नानां॒ पत॑ये॒ नमो॒ नमो॑ निचे॒रवे॑ परिच॒रायार॑ण्यानां॒ पत॑ये॒ नमः॑ ॥ २०॥ नमो॒ वञ्च॑ते परि॒वञ्च॑ते स्तायू॒नां पत॑ये॒ नमो॒ नमो॑ निष॒ङ्गिण॑ इषुधि॒मते॒ तस्क॑राणां॒ पत॑ये॒ नमो॒ नमः॑ सृका॒यिभ्यो॒ जिघा॑ꣳसद्भ्यो मुष्ण॒तां पत॑ये॒ नमो॒ नमो॑ऽसि॒मद्भ्यो॒ नक्त॒ञ्चर॑द्भ्यो विकृ॒न्तानां॒ पत॑ये॒ नमः॑ ॥ २१॥ नम॑ उष्णी॒षिणे॑ गिरिच॒राय॑ कुलु॒ञ्चानां॒ पत॑ये॒ नमो॒ नम॑ इषु॒मद्भ्यो॑ धन्वा॒यिभ्य॑श्च वो॒ नमो॒ नम॑ आतन्वा॒नेभ्यः॑ प्रति॒दधा॑नेभ्यश्च वो॒ नमो॒ नम॑ आ॒यच्छ॒द्भ्योऽस्य॑द्भ्यश्च वो॒ नमः॑ ॥ २२॥ नमो॑ विसृ॒जद्भ्यो॒ विध्य॑द्भ्यश्च वो॒ नमो॒ नमः॑ स्व॒पद्भ्यो॒ जाग्र॑द्भ्यश्च वो॒ नमो॒ नमः॒ शया॑नेभ्य॒ आसी॑नेभ्यश्च वो॒ नमो॒ नम॒स्तिष्ठ॑द्भ्यो॒ धाव॑द्भ्यश्च वो॒ नमः॑ ॥ २३॥ नमः॑ स॒भाभ्यः॑ स॒भाप॑तिभ्यश्च वो॒ नमो॒ नमोऽश्वे॒भ्योऽश्व॑पतिभ्यश्च वो॒ नमो॒ नम॑ आव्या॒धिनी॑भ्यो वि॒विध्य॑न्तीभ्यश्च वो॒ नमो॒ नम॒ उग॑णाभ्यस्तृꣳह॒तीभ्य॑श्च वो॒ नमः॑ ॥ २४॥ नमो॑ ग॒णेभ्यो॑ ग॒णप॑तिभ्यश्च वो॒ नमो॒ नमो॒ व्राते॑भ्यो॒ व्रात॑पतिभ्यश्च वो॒ नमो॒ नमो॒ गृत्से॑भ्यो॒ गृत्स॑पतिभ्यश्च वो॒ नमो॒ नमो॒ विरू॑पेभ्यो वि॒श्वरू॑पेभ्यश्च वो॒ नमः॑ ॥ २५॥ नमः॒ सेना॑भ्यः सेना॒निभ्य॑श्च वो॒ नमो॒ नमो॑ र॒थिभ्यो॑ अर॒थेभ्य॑श्च वो॒ नमो॒ नमः॑ क्ष॒त्तृभ्यः॑ संग्रही॒तृभ्य॑श्च वो॒ नमो॒ नमो॑ म॒हद्भ्यो॑ अर्भ॒केभ्य॑श्च वो॒ नमः॑ ॥ २६॥ नम॒स्तक्ष॑भ्यो रथका॒रेभ्य॑श्च वो॒ नमो॒ नमः॒ कुला॑लेभ्यः क॒र्मारे॑भ्यश्च वो॒ नमो॒ नमो॑ निषा॒देभ्यः॑ पु॒ञ्जिष्टे॑भ्यश्च वो॒ नमो॒ नमः॑ श्व॒निभ्यो॑ मृग॒युभ्य॑श्च वो॒ नमः॑ ॥ २७॥ नमः॒ श्वभ्यः॒ श्वप॑तिभ्यश्च वो॒ नमो॒ नमो॑ भ॒वाय॑ च रु॒द्राय॑ च॒ नमः॑ श॒र्वाय॑ च पशु॒पत॑ये च॒ नमो॒ नील॑ग्रीवाय च शिति॒कण्ठा॑य च ॥ २८॥ नमः॑ कप॒र्दिने॑ च॒ व्यु॒प्तकेशाय च॒ नमः॑ सहस्रा॒क्षाय॑ च श॒तध॑न्वने च॒ नमो॑ गिरिश॒याय॑ च शिपिवि॒ष्टाय॑ च॒ नमो॑ मी॒ढुष्ट॑माय॒ चेषु॑मते च ॥ २९॥ नमो॑ ह्र॒स्वाय॑ च वाम॒नाय॑ च॒ नमो॑ बृह॒ते च॒ वर्षी॑यसे च॒ नमो॑ वृ॒द्धाय॑ च स॒वृधे॑ च॒ नमोऽग्र्या॑य च प्रथ॒माय॑ च ॥ ३०॥ नम॑ आ॒शवे॑ चाजि॒राय॑ च॒ नमः॒ शीघ्र्या॑य च॒ शीभ्या॑य च॒ नम॒ ऊर्म्या॑य चावस्व॒न्या॒य च॒ नमो॑ नादे॒याय॑ च॒ द्वीप्या॑य च ॥ ३१॥ नमो॑ ज्ये॒ष्ठाय॑ च कनि॒ष्ठाय॑ च॒ नमः॑ पूर्व॒जाय॑ चापर॒जाय॑ च॒ नमो॑ मध्य॒माय॑ चापग॒ल्भाय॑ च॒ नमो॑ जघ॒न्या॒य च बु॒ध्न्या॒य च ॥ ३२॥ नमः॒ सोभ्या॑य च प्रतिस॒र्या॒य च॒ नमो॒ याम्या॑य च॒ क्षेम्या॑य च॒ नमः॒ श्लोक्या॑य चावसा॒न्या॒य च॒ नम॑ उर्व॒र्या॒य च॒ खल्या॑य च ॥ ३३॥ नमो॒ वन्या॑य च॒ कक्ष्या॑य च॒ नमः॑ श्र॒वाय॑ च प्रतिश्र॒वाय॑ च॒ नम॑ आ॒शुषे॑णाय चा॒शुर॑थाय च॒ नमः॒ शूरा॑य चावभे॒दिने॑ च ॥ ३४॥ नमो॑ बि॒ल्मिने॑ च कव॒चिने॑ च॒ नमो॑ व॒र्मिणे॑ च वरू॒थिने॑ च॒ नमः॑ श्रु॒ताय॑ च श्रुतसे॒नाय॑ च॒ नमो॑ दुन्दु॒भ्या॒य चाहन॒न्या॒य च ॥ ३५॥ नमो॑ धृ॒ष्णवे॑ च प्रमृ॒शाय॑ च॒ नमो॑ निष॒ङ्गिणे॑ चेषुधि॒मते॑ च॒ नम॑स्ती॒क्ष्णेष॑वे चायु॒धिने॑ च॒ नमः॑ स्वायु॒धाय॑ च सु॒धन्व॑ने च ॥ ३६॥ नमः॒ स्रुत्या॑य च॒ पथ्या॑य च॒ नमः॒ काट्या॑य च॒ नीप्या॑य च॒ नमः॒ कुल्या॑य च सर॒स्या॒य च॒ नमो॑ नादे॒याय॑ च वैश॒न्ताय॑ च ॥ ३७॥ नमः॒ कूप्या॑य चाव॒ट्या॑य च॒ नमो॒ वीध्र्या॑य चात॒प्या॒य च॒ नमो॒ मेघ्या॑य च विद्यु॒त्या॒य च॒ नमो॒ वर्ष्या॑य चाव॒र्ष्याय॑ च ॥ ३८॥ नमो॒ वात्या॑य च॒ रेष्म्या॑य च॒ नमो॑ वास्त॒व्या॒य च वास्तु॒पाय॑ च॒ नमः॒ सोमा॑य च रु॒द्राय॑ च॒ नम॑स्ता॒म्राय॑ चारु॒णाय॑ च ॥ ३९॥ नमः॑ श॒ङ्गवे॑ च पशु॒पत॑ये च॒ नम॑ उ॒ग्राय॑ च भी॒माय॑ च॒ नमो॑ऽग्रेव॒धाय॑ च दूरेव॒धाय॑ च॒ नमो॑ ह॒न्त्रे च॒ हनी॑यसे च॒ नमो॑ वृ॒क्षेभ्यो॒ हरि॑केशेभ्यो॒ नम॑स्ता॒राय॑ ॥ ४०॥ नमः॑ शम्भ॒वाय॑ च मयोभ॒वाय॑ च॒ नमः॑ शङ्क॒राय॑ च मयस्क॒राय॑ च॒ नमः॑ शि॒वाय॑ च शि॒वत॑राय च ॥ ४१॥ नमः॒ पार्या॑य चावा॒र्या॒य च॒ नमः॑ प्र॒तर॑णाय चो॒त्तर॑णाय च॒ नम॒स्तीर्थ्या॑य च॒ कूल्या॑य च॒ नमः॒ शष्प्या॑य च॒ फेन्या॑य च ॥ ४२॥ नमः॑ सिक॒त्या॒य च प्रवा॒ह्या॒य च॒ नमः॑ किꣳशि॒लाय॑ च क्षय॒णाय॑ च॒ नमः॑ कप॒र्दिने॑ च पुल॒स्तये॑ च॒ नम॑ इरि॒ण्या॒य च प्रप॒थ्या॒य च ॥ ४३॥ नमो॒ व्रज्या॑य च॒ गोष्ठ्या॑य च॒ नम॒स्तल्प्या॑य च॒ गेह्या॑य च॒ नमो॑ हृद॒य्या॒य च निवे॒ष्प्या॒य च॒ नमः॒ काट्या॑य च गह्वरे॒ष्ठाय॑ च ॥ ४४॥ नमः॒ शुष्क्या॑य च हरि॒त्या॒य च॒ नमः॑ पाꣳस॒व्या॒य च रज॒स्या॒य च॒ नमो॒ लोप्या॑य चोल॒प्या॒य च॒ नम॒ ऊर्व्या॑य च॒ सूर्व्या॑य च ॥ ४५॥ नमः॑ प॒र्णाय॑ च पर्णश॒दाय॑ च॒ नम॑ उद्गु॒रमा॑णाय चाभिघ्न॒ते च॒ नम॑ आखिद॒ते च॑ प्रखिद॒ते च॒ नमः॑ इषु॒कृद्भ्यो॑ धनु॒ष्कृद्भ्य॑श्च वो॒ नमो॒ नमो॑ वः किरि॒केभ्यो॑ दे॒वाना॒ꣳ हृद॑येभ्यो॒ नमो॑ विचिन्व॒त्केभ्यो॒ नमो॑ विक्षिण॒त्केभ्यो॒ नम॑ आनिर्ह॒तेभ्यः॑ ॥ ४६॥ द्रापे॒ अन्ध॑सस्पते॒ दरि॑द्रं॒ नील॑लोहित । आ॒सां प्र॒जाना॑मे॒षां प॑शू॒नां मा भे॒र्मा रोङ्भो च॑ नः॒ किञ्च॒नाम॑मत् ॥ ४७॥ इ॒मा रु॒द्राय॑ त॒वसे॑ कप॒र्दिने॑ क्ष॒यद्वी॑राय॒ प्रभ॑रामहे म॒तीः । यथा॒ शमस॑द्द्वि॒पदे॒ चतु॑ष्पदे॒ विश्वं॑ पु॒ष्टं ग्रामे॑ अ॒स्मिन्न॑नातु॒रम् ॥ ४८॥ या ते॑ रुद्र शि॒वा त॒नूः शि॒वा वि॒श्वाहा॑ भेष॒जी । शि॒वा रु॒तस्य॑ भेष॒जी तया॑ नो मृड जी॒वसे॑ ॥ ४९॥ परि॑ नो रु॒द्रस्य॑ हे॒तिर्वृ॑णक्तु॒ परि॑ त्वे॒षस्य॑ दुर्म॒तिर॑घा॒योः । अव॑ स्थि॒रा म॒घव॑द्भ्यस्तनुष्व॒ मीढ्व॑स्तो॒काय॒ तन॑याय मृड ॥ ५०॥ मीढु॑ष्टम॒ शिव॑तम शि॒वो नः॑ सु॒मना॑ भव । प॒र॒मे वृ॒क्ष आयु॑धं नि॒धाय॒ कृत्तिं॒ वसा॑न॒ आच॑र॒ पिना॑कं॒ बिभ्र॒दाग॑हि ॥ ५१॥ विकि॑रिद्र॒ विलो॑हित॒ नम॑स्ते अस्तु भगवः । यास्ते॑ स॒हस्र॑ꣳ हे॒तयो॒ऽन्यम॒स्मन्निव॑पन्तु॒ ताः ॥ ५२॥ स॒हस्रा॑णि सहस्र॒शो बा॒ह्वोस्तव॑ हे॒तयः॑ । तासा॒मीशा॑नो भगवः परा॒चीना॒ मुखा॑ कृधि ॥ ५३॥ असं॑ख्याता स॒हस्रा॑णि॒ ये रु॒द्रा अधि॒ भूम्या॑म् । तेषा॑ꣳ सहस्रयोज॒नेऽव॒ धन्वा॑नि तन्मसि ॥ ५४॥ अ॒स्मिन्म॑ह॒त्य॒र्ण॒वेऽन्तरि॑क्षे भ॒वा अधि॑ । तेषा॑ꣳ सहस्रयोज॒नेऽव॒ धन्वा॑नि तन्मसि ॥ ५५॥ नील॑ग्रीवाः शिति॒कण्ठा॒ दिव॑ꣳ रु॒द्रा उप॑श्रिताः । तेषा॑ꣳ सहस्रयोज॒नेऽव॒ धन्वा॑नि तन्मसि ॥ ५६॥ नील॑ग्रीवाः शिति॒कण्ठाः॑ श॒र्वा अ॒धः क्ष॑माच॒राः । तेषा॑ꣳ सहस्रयोज॒नेऽव॒ धन्वा॑नि तन्मसि ॥ ५७॥ ये वृ॒क्षेषु॑ श॒ष्पिञ्ज॑रा॒ नील॑ग्रीवा॒ विलो॑हिताः । तेषा॑ꣳ सहस्रयोज॒नेऽव॒ धन्वा॑नि तन्मसि ॥ ५८॥ ये भू॒ताना॒मधि॑पतयो विशि॒खासः॑ कप॒र्दिनः॑ । तेषा॑ꣳ सहस्रयोज॒नेऽव॒ धन्वा॑नि तन्मसि ॥ ५९॥ ये प॒थां प॑थि॒रक्ष॑य ऐलबृ॒दा आ॑यु॒र्युधः॑ । तेषा॑ꣳ सहस्रयोज॒नेऽव॒ धन्वा॑नि तन्मसि ॥ ६०॥ ये ती॒र्थानि॑ प्र॒चर॑न्ति सृ॒काह॑स्ता निष॒ङ्गिणः॑ । तेषा॑ꣳ सहस्रयोज॒नेऽव॒ धन्वा॑नि तन्मसि ॥ ६१॥ येऽन्ने॑षु वि॒विध्य॑न्ति॒ पात्रे॑षु॒ पिब॑तो॒ जना॑न् । तेषा॑ꣳ सहस्रयोज॒नेऽव॒ धन्वा॑नि तन्मसि ॥ ६२॥ य ए॒ताव॑न्तश्च॒ भूया॑ꣳसश्च॒ दिशो॑ रु॒द्रा वि॑तस्थि॒रे । तेषा॑ꣳ सहस्रयोज॒नेऽव॒ धन्वा॑नि तन्मसि ॥ ६३॥ नमो॑ऽस्तु रु॒द्रेभ्यो॒ ये दि॒वि येषां॑ व॒र्षमिष॑वस्तेभ्यो॒ दश॒ प्राची॒र्दश॑ दक्षि॒णा दश॑ प्र॒तीची॒र्दशोदी॑ची॒र्दशो॒र्ध्वास्तेभ्यो॒ नमो॑ अस्तु॒ ते नो॑ऽवन्तु॒ ते नो॑ मृडयन्तु॒ ते यं द्वि॒ष्मो यश्च॑ नो॒ द्वेष्टि॒ तमे॑षां॒ जम्भे॑ दध्मः ॥ ६४॥ नमो॑ऽस्तु रु॒द्रेभ्यो॒ येऽन्तरि॑क्षे॒ येषां॒ वात॒ इष॑वस्तेभ्यो॒ दश॒ प्राची॒र्दश॑ दक्षि॒णा दश॑ प्र॒तीची॒र्दशोदी॑ची॒र्दशो॒र्ध्वास्तेभ्यो॒ नमो॑ अस्तु॒ ते नो॑ऽवन्तु॒ ते नो॑ मृडयन्तु॒ ते यं द्वि॒ष्मो यश्च॑ नो॒ द्वेष्टि॒ तमे॑षां॒ जम्भे॑ दध्मः ॥ ६५॥ नमो॑ऽस्तु रु॒द्रेभ्यो॒ ये पृ॑थि॒व्यां येषा॒मन्न॒मिष॑वस्तेभ्यो॒ दश॒ प्राची॒र्दश॑ दक्षि॒णा दश॑ प्र॒तीची॒र्दशोदी॑ची॒र्दशो॒र्ध्वास्तेभ्यो॒ नमो॑ अस्तु॒ ते नो॑ऽवन्तु॒ ते नो॑ मृडयन्तु॒ ते यं द्वि॒ष्मो यश्च॑ नो॒ द्वेष्टि॒ तमे॑षां॒ जम्भे॑ दध्मः ॥ ६६॥ इति रुद्रे पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५॥
GrahRaj Astrology ज्योतिष-वास्तु-धार्मिकपूजा

अथ षष्ठोऽध्यायः ।

(महच्छिर / सोमस्तवन / त्र्यम्बक यजनम् ।) हरिः॑ ॐ व॒यꣳसो॑म व्र॒ते तव॒ मन॑स्त॒नूषु॒ बिभ्र॑तः । प्र॒जाव॑न्तः सचेमहि ॥ १॥ ए॒ष ते॑ रुद्र भा॒गः स॒ह स्वस्राऽम्बि॑कया॒ तं जु॑षस्व॒ स्वाहै॒ष ते॑ रुद्र भा॒ग आ॒खुस्ते॑ प॒शुः ॥ २॥ अव॑ रु॒द्रम॑दीम॒ह्यव॑ दे॒वं त्र्य॑म्बकम् । यथा॑ नो॒ वस्य॑स॒स्कर॒द्यथा॑ नः॒ श्रेय॑स॒स्कर॒द्यथा॑ नो व्यवसा॒यया॑त् ॥ ३॥ भे॒ष॒जम॑सि भेष॒जं गवेऽश्वा॑य॒ पुरु॑षाय भेष॒जम् । सु॒खं मे॒षाय॑ मेष्यै ॥ ४॥ त्र्य॑म्बकं यजामहे सुग॒न्धिं पु॑ष्टि॒वर्ध॑नम् । उ॒र्वा॒रु॒कमि॑व॒ बन्ध॑नान्मृ॒त्योर्मु॑क्षीय॒ माऽमृता॑त् । त्र्य॑म्बकं यजामहे सुग॒न्धिं प॑ति॒वेद॑नम् । उ॒र्वा॒रु॒कमि॑व॒ बन्ध॑नादि॒तो मु॑क्षीय॒ मामुतः॑ ॥ ५॥ ए॒तत्ते॑ रुद्राव॒सं तेन॑ प॒रो मूज॑व॒तोऽती॑हि । अव॑ततधन्वा॒ पिना॑कावसः॒ कृत्ति॑वासा॒ अहि॑ꣳसन्नः शि॒वोऽती॑हि ॥ ६॥ त्र्या॑यु॒षं ज॒मद॑ग्नेः क॒श्यप॑स्य त्र्यायु॒षम् । यद्दे॒वेषु॑ त्र्यायु॒षं तन्नो॑ अस्तु त्र्यायु॒षम् ॥ ७॥ शि॒वो नामा॑सि॒ स्वधि॑तिस्ते पि॒ता नम॑स्ते अस्तु॒ मा मा॑ हिꣳसीः । निव॑र्तयाम्यायु॑षे॒ऽन्नाद्या॑य॒ प्रजन॑नाय रा॒यस्पोषा॑य सुप्रजा॒स्त्वाय॑ सु॒वीर्या॑य ॥ ८॥ इति रुद्रे षष्ठोऽध्यायः ॥ ६॥ GrahRaj Astrology ज्योतिष-वास्तु-धार्मिकपूजा

अथ सप्तमोऽध्यायः ।

(जटाऽध्याय ।) हरिः॑ ॐ उ॒ग्रश्च॑ भी॒मश्च॒ ध्वा॒न्तश्च॒ धुनि॑श्च । सा॒स॒ह्वांश्चा॑भियु॒ग्वा च॑ वि॒क्षिपः॒ स्वाहा॑ ॥ १॥ अ॒ग्निꣳ हृद॑येना॒शनि॑ꣳ हृदया॒ग्रेण॑ पशु॒पतिं॑ कृत्स्न॒हृद॑येन भ॒वं य॒क्ना । श॒र्वं मत॑स्नाभ्या॒मीशा॑नं म॒न्युना॑ महादे॒वम॑न्तः पर्श॒व्येनो॒ग्रं दे॒वं व॑नि॒ष्ठुना॑ वसिष्ठ॒हनुः॒ शिङ्गी॑नि को॒श्याभ्या॑म् ॥ २॥ उ॒ग्रं ल्लोहि॑तेन मि॒त्रꣳ सौ॑व्रत्येन रु॒द्रं दौर्व्र॑त्ये॒नेन्द्रं॑ प्रक्री॒डेन॑ म॒रुतो॒ बले॑न सा॒ध्यान्प्र॒मुदा॑ । भ॒वस्य॒ कण्ठ्य॑ꣳ रु॒द्रस्या॑न्तः पा॒र्श्व्यं म॑हादे॒वस्य॒ यकृ॑च्छ॒र्वस्य॑ वनि॒ष्ठुः प॑शु॒पतेः॑ पुरी॒तत् ॥ ३॥ लोम॑भ्यः॒ स्वाहा॒ लोम॑भ्यः॒ स्वाहा॑ त्व॒चे स्वाहा॑ त्व॒चे स्वाहा॒ लोहि॑ताय॒ स्वाहा॒ लोहि॑ताय॒ स्वाहा॒ मेदो॑भ्यः॒ स्वाहा॒ मेदो॑भ्यः॒ स्वाहा॑ । मा॒ꣳसेभ्यः॒ स्वाहा॑ मा॒ꣳसेभ्यः॒ स्वाहा॒ स्नाव॑भ्यः॒ स्वाहा॒ स्नाव॑भ्यः॒ स्वाहा॒ अस्थभ्यः॒ स्वाहा॒ अस्थभ्यः॒ स्वाहा॑ म॒ज्जभ्यः॒ स्वाहा॑ म॒ज्जभ्यः॒ स्वाहा॑ । रेत॑से॒ स्वाहा॑ पा॒यवे॒ स्वाहा॑ ॥ ४॥ आ॒या॒साय॒ स्वाहा॑ प्राया॒साय॒ स्वाहा॑ संया॒साय॒ स्वाहा॑ विया॒साय॒ स्वाहो॑द्या॒साय॒ स्वाहा॑ । शु॒चे स्वाहा॒ शोच॑ते॒ स्वाहा॒ शोच॑मानाय॒ स्वाहा॒ शोका॑य॒ स्वाहा॑ ॥ ५॥ तप॑से॒ स्वाहा॒ तप्य॑ते॒ स्वाहा॒ तप्य॑मानाय॒ स्वाहा॑ त॒प्ताय॒ स्वाहा॑ घ॒र्माय॒ स्वाहा॑ । निष्कृ॑त्यै॒ स्वाहा॒ प्राय॑श्चित्त्यै॒ स्वाहा॑ भेष॒जाय॒ स्वाहा॑ ॥ ६॥ य॒माय॒ स्वाहान्त॑काय॒ स्वाहा॑ मृ॒त्यवे॒ स्वाहा॒ ब्रह्म॑णे॒ स्वाहा॑ ब्रह्मह॒त्यायै॒ स्वाहा॒ । विश्वे॑भ्यो दे॒वेभ्यः॒ स्वाहा॒ द्यावा॑पृथि॒वीभ्या॒ꣳ स्वाहा॑ ॥ ७॥ इति रुद्रे सप्तमोऽध्यायः ॥ ७॥

अथ अष्टमोऽध्यायः ।

(चमकप्रश्नः ।) हरिः॑ ॐ वाज॑श्च मे प्रस॒वश्च॑ मे॒ प्रय॑तिश्च मे॒ प्रसि॑तिश्च मे धी॒तिश्च॑ मे॒ क्रतु॑श्च मे॒ स्वर॑श्च मे॒ श्लोक॑श्च मे श्र॒वश्च॑ मे॒ श्रुति॑श्च मे॒ ज्योति॑श्च मे॒ स्व॒श्च मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम् ॥ १॥ प्रा॒णश्च॑ मेऽपा॒नश्च॑ मे व्या॒नश्च॒ मेऽसु॑श्च मे चि॒त्तं च॑ म॒ आधी॑तं च मे॒ वाक् च॑ मे॒ मन॑श्च मे॒ चक्षु॑श्च मे॒ श्रोत्रं॑ च मे॒ दक्ष॑श्च मे॒ बलं॑ च मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम् ॥ २॥ ओज॑श्च मे॒ सह॑श्च म आ॒त्मा च॑ मे त॒नूश्च॑ मे॒ शर्म॑ च मे॒ वर्म॑ च॒ मेऽङ्गा॑नि च॒ मेऽस्थी॑नि च मे॒ परू॑ꣳषि च मे॒ शरी॑राणि च म॒ आयु॑श्च मे ज॒रा च॑ मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम् ॥ ३॥ ज्यै॑ष्ठ्यं च म आधि॑पत्यं च मे म॒न्युश्च॑ मे॒ भाम॑श्च॒ मेऽम॑श्च॒ मेऽम्भ॑श्च मे जे॒मा च॑ मे महि॒मा च॑ मे वरि॒मा च॑ मे प्रथि॒मा च॑ मे वर्षि॒मा च॑ मे द्राघि॒मा च॑ मे वृ॒द्धं च॑ मे॒ वृद्धि॑श्च मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम् ॥ ४॥ स॒त्यं च॑ मे श्र॒द्धा च॑ मे॒ जग॑च्च मे॒ धनं॑ च मे॒ विश्वं॑ च मे॒ मह॑श्च मे क्री॒डा च॑ मे॒ मोद॑श्च मे जा॒तं च॑ मे जनि॒ष्यमा॑णं च मे सू॒क्तं च॑ मे सुकृ॒तं च॑ मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम् ॥ ५॥ ऋ॒तं च॑ मेऽमृतं॑ च मेऽय॒क्ष्मं च॒ मेऽना॑मयच्च मे जी॒वातु॑श्च मे दीर्घायु॒त्वं च॑ मेऽनमि॒त्रं च॒ मेऽभ॑यं च मे सु॒खं च॑ मे॒ शय॑नं च मे सू॒षाश्च॑ मे सु॒दिनं॑ च मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम् ॥ ६॥ य॒न्ता च॑ मे ध॒र्ता च॑ मे॒ क्षेम॑श्च मे॒ धृति॑श्च मे॒ विश्वं॑ च मे॒ मह॑श्च मे सं॒विच्च॑ मे॒ ज्ञात्रं॑ च मे॒ सूश्च॑ मे प्र॒सूशच॒॑ मे॒ सीरं॑ च मे॒ लय॑श्च मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम् ॥ ७॥ शं च॑ मे॒ मय॑श्च मे प्रि॒यं च॑ मेऽनुका॒मश्च॑ मे॒ काम॑श्च मे सौमन॒सश्च॑ मे॒ भग॑श्च मे॒ द्रवि॑णं च मे भ॒द्रं च॑ मे॒ श्रेय॑श्च मे॒ वसी॑यश्च मे॒ यश॑श्च मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम् ॥ ८॥ ऊर्क्च॑ मे सू॒नृता॑ च मे॒ पय॑श्च मे॒ रस॑श्च मे घृ॒तं च॑ मे॒ मधु॑ च मे॒ सग्धि॑श्च मे॒ सपी॑तिश्च मे कृ॒षिश्च॑ मे॒ वृष्टि॑श्च मे॒ जैत्रं॑ च म॒ औद्भि॑द्यं च मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम् ॥ ९॥ र॒यिश्च॑ मे॒ राय॑श्च मे पु॒ष्टं च॑ मे॒ पुष्टि॑श्च मे वि॒भु च॑ मे प्र॒भु च॑ मे पू॒र्णं च॑ मे पू॒र्णत॑रं च मे॒ कुय॑वं च॒ मेऽक्षि॑तं च॒ मेऽन्नं॑ च॒ मेऽक्षु॑च्च मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम् ॥ १०॥ वि॒त्तं च॑ मे॒ वेद्यं॑ च मे भू॒तं च॑ मे भवि॒ष्यच्च॑ मे सु॒गं च॑ मे सुप॒थ्यं॒ च म ऋ॒द्धं च॑ म॒ ऋद्धि॑श्च मे क्लृ॒प्तं च॑ मे॒ क्लृप्ति॑श्च मे म॒तिश्च॑ मे सुम॒तिश्च॑ मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम् ॥ ११॥ व्री॒हय॑श्च मे॒ यवा॑श्च मे॒ माषा॑श्च मे॒ तिला॑श्च मे मु॒द्राश्च॑ मे॒ खल्वा॑श्च मे प्रि॒यङ्ग॑वश्च॒ मेऽण॑वश्च मे श्या॒माका॑श्च मे नी॒वारा॑श्च मे गो॒धूमा॑श्च मे म॒सूरा॑श्च मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम् ॥ १२॥ अश्मा॑ च मे॒ मृत्ति॑का च मे गि॒रय॑श्च मे॒ पर्व॑ताश्च मे॒ सिक॑ताश्च मे॒ वन॒स्पत॑यश्च मे॒ हिर॑ण्यं च॒ मेऽय॑श्च मे श्या॒मं च॑ मे लो॒हं च॑ मे॒ सीसं॑ च मे॒ त्रपु॑ च मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम् ॥ १३॥ अ॒ग्निश्च॑ म॒ आप॑श्च मे वी॒रुध॑श्च म॒ ओष॑धयश्च मे कृष्टप॒च्याश्च॑ मेऽकृष्टप॒च्याश्च॑ मे ग्रा॒म्याश्च॑ मे प॒शव॑ आर॒ण्याश्च॑ मे वि॒त्तं च॑ मे॒ वित्ति॑श्च मे भू॒तं च॑ मे॒ भूति॑श्च मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम् ॥ १४॥ वसु॑ च मे वस॒तिश्च॑ मे॒ कर्म॑ च मे॒ शक्ति॑श्च॒ मेऽर्थ॑श्च म॒ एम॑श्च म इ॒त्या च॑ मे॒ गति॑श्च मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम् ॥ १५॥ अ॒ग्निश्च॑ म॒ इन्द्र॑श्च मे॒ सोम॑श्च म॒ इन्द्र॑श्च मे सवि॒ता च॑ म॒ इन्द्र॑श्च मे॒ सर॑स्वती च म॒ इन्द्र॑श्च मे पू॒षा च॑ म॒ इन्द्र॑श्च मे॒ बृह॒स्पति॑श्च म॒ इन्द्र॑श्च मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम् ॥ १६॥ मि॒त्रश्च॑ म॒ इन्द्र॑श्च मे॒ वरु॑णश्च म॒ इन्द्र॑श्च मे धा॒ता च॑ म॒ इन्द्र॑श्च मे॒ त्वष्टा॑ च म॒ इन्द्र॑श्च मे म॒रुत॑श्च म॒ इन्द्र॑श्च मे॒ विश्वे॑ च मे दे॒वा इन्द्र॑श्च मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम् ॥ १७॥ पृ॒थि॒वी च॑ म॒ इन्द्र॑श्च॒ मेऽन्तरि॑क्षं च म॒ इन्द्र॑श्च मे॒ द्यौश्च॑ म॒ इन्द्र॑श्च मे॒ समा॑श्च म॒ इन्द्र॑श्च मे॒ नक्ष॑त्राणि च म॒ इन्द्र॑श्च मे॒ दिश॑श्च म॒ इन्द्र॑श्च मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम् ॥ १८॥ अ॒ꣳशुश्च॑ मे र॒श्मिश्च॒ मेऽदा॑भ्यश्च॒ मेऽधि॑पतिश्च म उपा॒ꣳशुश्च॑ मेऽन्तर्या॒मश्च॑ म ऐन्द्रवाय॒वश्च॑ मे मैत्रावरु॒णश्च॑ म आश्वि॒नश्च॑ मे प्रतिप्र॒स्थान॑श्च मे शु॒क्रश्च॑ मे म॒न्थी च॑ मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम् ॥ १९॥ आ॒ग्र॒या॒णश्च॑ मे वैश्वदे॒वश्च॑ मे ध्रु॒वश्च॑ मे वैश्वान॒रश्च॑ म ऐन्द्रा॒ग्नश्च॑ मे म॒हावै॑श्वदेश्च मे मरुत्व॒तीया॑श्च मे॒ निष्के॑वल्यश्च मे सावि॒त्रश्च॑ मे सारस्व॒तश्च॑ मे पात्नीव॒तश्च॑ मे हारियोज॒नश्च॑ मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम् ॥ २०॥ स्रुच॑श्च मे चम॒साश्च॑ मे वाय॒व्या॒नि च मे द्रोणकल॒शश्च॑ मे॒ ग्रावा॑णश्च मेऽधि॒षव॑णे च मे पूत॒भृच्च॑ म आधव॒नीय॑श्च मे॒ वेदि॑श्च मे ब॒र्हिश्च॑ मेऽवभृ॒तश्च॑ मे स्वगाका॒रश्च॑ मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम् ॥ २१॥ अ॒ग्निश्च॑ मे घ॒र्मश्च॑ मे॒ऽर्कश्च॑ मे॒ सूर्य॑श्च मे प्रा॒णश्च॑ मेऽश्वमे॒धश्च॑ मे पृथि॒वी च॒ मेऽदि॑तिश्च मे॒ दिति॑श्च मे॒ द्यौश्च॑ मे॒ऽङ्गुल॑य॒: शक्व॑रयो॒ दिश॑श्च मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम् ॥ २२॥ व्र॒तं च॑ म ऋ॒तव॑श्च मे॒ तप॑श्च मे संवत्स॒रश्च॑ मे अहोरा॒त्रे ऊ॑र्वष्ठी॒वे बृ॑हद्रथन्त॒रे च॑ मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम् ॥ २३॥ एका॑ च मे ति॒स्रश्च॑ मे ति॒स्रश्च॑ मे॒ पञ्च॑ च मे॒ पञ्च॑ च मे स॒प्त च॑ मे स॒प्त च॑ मे॒ नव॑ च मे॒ नव॑ च म॒ एका॑दश च म॒ एका॑दश च मे॒ त्रयो॑दश च मे॒ त्रयो॑दश च मे॒ पञ्च॑दश च मे॒ पञ्च॑दश च मे स॒प्तद॑श च मे स॒प्तद॑श च मे॒ नव॑दश च मे॒ नव॑दश च म॒ एक॑विꣳशतिश्च म॒ एक॑विꣳशतिश्च मे॒ त्रयो॑विꣳशतिश्च मे॒ त्रयो॑विꣳशतिश्च मे॒ पञ्च॑विꣳशतिश्च मे॒ पञ्च॑विꣳशतिश्च मे स॒प्तवि॑ꣳशतिश्च मे प्तवि॑ꣳशतिश्च मे॒ नव॑विꣳशतिश्च मे॒ नव॑विꣳशतिश्च म॒ एक॑त्रिꣳशच्च म॒ एक॑त्रिꣳशच्च मे॒ त्रय॑स्त्रिꣳशच्च मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम् ॥ २४॥ चत॑स्रश्च मे॒ऽष्टौ च॑ मे॒ऽष्टौ च॑ मे॒ द्वाद॑श च मे॒ द्वाद॑श च मे॒ षोड॑श च मे॒ षोड॑श च मे विꣳश॒तिश्च॑ मे विꣳशतिश्च॑ मे॒ चतु॑र्विꣳशतिश्च मे॒ चतु॑र्विꣳश॒तिश्च॑ मे॒ऽष्टावि॑ꣳशतिश्च मे॒ऽष्टावि॑ꣳशतिश्च मे॒ द्वात्रि॑ꣳशच्च मे॒ द्वात्रि॑ꣳशच्च मे॒ षट्त्रि॑ꣳशच्च मे॒ षट्त्रि॑ꣳशच्च मे चत्वारि॒ꣳशच्च॑ मे चत्वारि॒ꣳशच्च॑ मे॒ चतु॑श्चत्वारिꣳशच्च मे॒ चतु॑श्चत्वारिꣳशच्च मे॒ऽष्टाच॑त्वारिꣳशच्च मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम् ॥ २५॥ त्र्यवि॑श्च मे त्र्य॒वी च॑ मे दित्य॒वाट् च॑ मे दित्यौ॒ही च॑ मे पञ्चा॒विश्च॑ मे पञ्चा॒वी च॑ मे त्रिव॒त्सश्च॑ मे त्रिव॒त्सा च॑ मे तुर्य॒वाट् च॑ मे तुर्यौ॒ही च॑ मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम् ॥ २६॥ प॒ष्ठ॒वाट् च॑ मे पष्ठौ॒ही च॑ म उ॒क्षा च॑ मे व॒शा च॑ म ऋष॒भश्च॑ मे वे॒हच्च॑ मेऽन॒ड्वांश्च॑ मे धे॒नुश्च॑ मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम् ॥ २७॥ वाजा॑य॒ स्वाहा॑ प्रस॒वाय॒ स्वाहा॑ऽपि॒जाय॒ स्वाहा॒ क्रत॑वे॒ स्वाहा॒ वस॑वे॒ स्वाहा॑ऽह॒र्पत॑ये॒ स्वाहाह्ने॑ मु॒ग्धाय॒ स्वाहा॑ मु॒ग्धाय॑ वैनꣳशि॒नाय॒ स्वाहा॑ विन॒शिन॑ आन्त्याय॒नाय॒ स्वाहान्त्या॑य भौव॒नाय॒ स्वाहा॒ भुव॑नस्य॒ पत॑ये॒ स्वाहाधि॑पतये॒ स्वाहा॑ प्र॒जाप॑तये॒ स्वाहा॑ । इ॒यं ते॒ राण्मि॒त्राय॑ य॒न्ताऽसि॒ यम॑न ऊ॒र्जे त्वा॒ वृष्ट्यै॑ त्वा प्र॒जानां॒ त्वाधि॑पत्याय ॥ २८॥ आयु॑र्य॒ज्ञेन॑ कल्पतां प्रा॒णो य॒ज्ञेन॑ कल्पतां॒ चक्षु॑र्य॒ज्ञेन॑ कल्पता॒ꣳश्रोत्रं॑ य॒ज्ञेन॑ कल्पतां॒ वाग्य॒ज्ञेन॑ कल्पतां॒ मनो॑ य॒ज्ञेन॑ कल्पतामा॒त्मा य॒ज्ञेन॑ कल्पतां ब्र॒ह्मा य॒ज्ञेन॑ कल्पतां॒ ज्योति॑र्य॒ज्ञेन॑ कल्पतां॒ स्व॒र्य॒ज्ञेन॑ कल्पतां पृ॒ष्ठं य॒ज्ञेन॑ कल्पतां य॒ज्ञो य॒ज्ञेन॑ कल्पताम् । स्तोम॑श्च यजु॑श्च॒ ऋक् च॒ साम॑ च बृ॒हच्च॑ रथन्त॒रं च॑ । स्व॑र्देवा अगन्मा॒मृता॑ अभूम प्र॒जाप॑तेः प्र॒जा अ॑भूम॒ वेट् स्वाहा॑ ॥ २९॥ इति रुद्रेऽष्टमोऽध्यायः ॥ ८॥ GrahRaj Astrology ज्योतिष-वास्तु-धार्मिकपूजा

अथ शान्त्यध्यायः ।

हरिः॑ ॐ ऋचं॒ वाचं॒ प्रप॑द्ये॒ मनो॒ यजुः॒ प्रप॑द्ये॒ साम॑ प्रा॒णं प्रप॑द्ये॒ चक्षुः॒ श्रोत्रं॒ प्रप॑द्ये । वागोजः॑ स॒हौजो॒ मयि॑ प्राणापा॒नौ ॥ १॥ यन्मे॑ छि॒द्रं चक्षु॑षो॒ हृद॑यस्य॒ मन॑सो॒ वाति॑तृण्णं॒ बृह॒स्पति॑र्मे॒ तद्द॑धातु । शं नो॑ भवतु॒ भुव॑नस्य॒ यस्पतिः॑ ॥ २॥ भूर्भुवः॒ स्वः॒ तत्स॑वि॒तुर्वरे॑ण्यं॒ भर्गो॑ दे॒वस्य॑ धीमहि । धियो॒ यो नः॑ प्रचो॒दया॑त् ॥ ३॥ कया॑ नश्चि॒त्र आभु॑वदू॒ती स॒दावृ॑धः॒ सखा॑ । कया॒ शचि॑ष्ठया वृ॒ता ॥ ४॥ कस्त्वा॑ स॒त्यो मदा॑नां॒ मꣳहि॑ष्ठो मत्स॒दन्ध॑सः । दृ॒ढा चि॑दा॒रुजे॒ वसु॑ ॥ ५॥ अ॒भी षु णः॒ सखी॑नामवि॒ता ज॑रितॄ॒णाम् । श॒तं भ॑वास्यू॒तिभिः॑ ॥ ६॥ कया॒ त्वं न ऊ॒त्याभि प्रम॑न्दसे वृषन् । कया॑ स्तो॒तृभ्य॒ आभ॑र ॥ ७॥ इन्द्रो॒ विश्व॑स्य राजति । शं नो॑ अस्तु द्वि॒पदे॒ शं चतु॑ष्पदे ॥ ८॥ शं नो॑ मि॒त्र: शं वरु॑णः॒ शं नो॑ भवत्वर्य॒मा । शं न॒ इन्द्रो॒ बृह॒स्पतिः॒ शं नो॒ विष्णु॑रुरुक्र॒मः ॥ ९॥ शं नो॒ वातः॑ पवता॒ꣳ शं न॑स्तपतु॒ सूर्यः॑ । शं नः॒ कनि॑क्रदद्दे॒वः प॒र्जन्यो॑ अ॒भिव॑र्षतु ॥ १०॥ अहा॑नि॒ शं भव॑न्तु नः॒ शꣳ रात्रीः॒ प्रति॑धीयताम् । शं न॑ इन्द्रा॒ग्नी भ॑वता॒मवो॑भिः॒ शं न॒ इन्द्रा॒वरु॑णा रा॒तह॑व्या । शं न॑ इन्द्रापू॒षणा॒ वाज॑सातौ॒ शमिन्द्रा॒सोमा॑ सुवि॒ताय॒ शं योः ॥ ११॥ शं नो॑ दे॒वीर॒भिष्ट॑य॒ आपो॑ भवन्तु पी॒तये॑ । शं योर॒भिस्र॑वन्तु नः ॥ १२॥ स्यो॒ना पृ॑थिवि नो भवानृक्ष॒रा नि॒वेश॑नी । यच्छा॑ नः॒ शर्म॑ स॒प्रथाः॑ ॥ १३॥ आपो॒ हि ष्ठा म॑यो॒भुव॒स्ता न॑ ऊ॒र्जे द॑धातन । म॒हे रणा॑य॒ चक्ष॑से ॥ १४॥ यो वः॑ शि॒वत॑मो॒ रस॒स्तस्य॑ भाजयते॒ह नः॑ । उ॒श॒तीरि॑व मा॒तरः॑ ॥ १५॥ तस्मा॒ अरं॑ गमाम वो॒ यस्य॒ क्षया॑य॒ जिन्व॑थ । आपो॑ ज॒नय॑था च नः ॥ १६॥ द्यौ: शान्ति॑र॒न्तरि॑क्ष॒ꣳ शान्तिः॑ पृथि॒वी शान्ति॒रापः॒ शान्ति॒रोष॑धयः॒ शान्तिः॑ । वन॒स्पत॑यः॒ शान्ति॒र्विश्वे॑ दे॒वाः शान्ति॒र्ब्रह्म॒ शान्तिः॒ सर्व॒ꣳ शान्तिः॒ शान्ति॑रे॒व शान्तिः॒ सा मा॒ शान्ति॑रेधि ॥ १७॥ दृते॒ दृꣳह॑ मा मि॒त्रस्य॑ मा॒ चक्षु॑षा॒ सर्वा॑णि भू॒तानि॒ समी॑क्षन्ताम् । मि॒त्रस्या॒हं चक्षु॑षा॒ सर्वा॑णि भू॒तानि॒ समी॑क्षे । मि॒त्रस्य॒ चक्षु॑षा॒ समी॑क्षामहे ॥ १८॥ दृते॒ दृꣳह॑ मा मि॒त्रस्य॑ मा॒ चक्षु॑षा॒ सर्वा॑णि भू॒तानि॒ समी॑क्षन्ताम् । ज्योक्ते॑ स॒न्दृशि॑ जीव्यासं॒ ज्योक्ते॑ स॒न्दृशि॑ जीव्यासम् ॥ १९॥ नम॑स्ते॒ हर॑से शो॒चिषे॒ नम॑स्ते अस्त्व॒र्चिषे॑ । अ॒न्याँस्ते॑ अ॒स्मत्त॑पन्तु हे॒तयः॑ पाव॒को अ॒स्मभ्य॑ꣳ शि॒वो भ॑व ॥ २०॥ नम॑स्ते अस्तु वि॒द्युते॒ नम॑स्ते स्तनयि॒त्नवे॑ । नम॑स्ते भगवन्नस्तु॒ यतः॒ स्वः॒ स॒मीह॑से ॥ २१॥ यतो॑ यतः स॒मीह॑से॒ ततो॑ नो॒ अभ॑यं कुरु । शं नः॑ कुरु प्र॒जाभ्योऽभ॑यं नः प॒शुभ्यः॑ ॥ २२॥ सु॒मि॒त्रि॒या न॒ आप॒ ओष॑धयः सन्तु दुर्मित्रि॒यास्तस्मै॑ सन्तु॒यो॒ऽस्मान् द्वेष्टि॒ यं च॑ व॒यं द्वि॒ष्मः ॥ २३॥ तच्चक्षु॑र्दे॒वहि॑तं पु॒रस्ता॑च्छु॒क्रमुच्च॑रत् । पश्ये॑म श॒रदः॑ श॒तं जीवे॑म श॒रदः॑ श॒तꣳ श‍ृणु॑याम श॒रदः॑ श॒तं प्रब्र॑वाम श॒रदः॑ श॒तमदी॑नाः स्याम श॒रदः॑ श॒तं भूय॑श्च श॒रदः॑ श॒तात् ॥ २४॥ इति रुद्रे शान्त्यध्यायः ॥ ९॥ GrahRaj Astrology ज्योतिष-वास्तु-धार्मिकपूजा

अथ स्वस्तिप्रार्थनामन्त्रः ।

हरिः॑ ॐ ॐ स्व॒स्ति न॒ इन्द्रो॑ वृ॒द्धश्र॑वाः । स्व॒स्ति नः॑ पू॒षा वि॒श्ववे॑दाः । स्व॒स्ति न॒स्तार्क्ष्यो॒ अरि॑ष्टनेमिः । स्व॒स्ति नो॒ बृह॒स्पति॑र्दधातु ॥ १॥ ॐ पयः॑ पृथि॒व्यां पय॒ ओष॑धीषु॒ पयो॑ दि॒व्यन्तरि॑क्षे॒ पयो॑ धाः । पय॑स्वतीः प्र॒दिशः॑ सन्तु॒ मह्य॑म् ॥ २॥ ॐ विष्णो॑ र॒राट॑मसि॒ विष्णोः॒ श्नप्त्रे॑ स्थो विष्णोः॒ स्यूर॑सि॒ विष्णो॑र्ध्रु॒वो॒ऽसि । वै॒ष्ण॒वम॑सि॒ विष्ण॑वे त्वा ॥ ३॥ ॐ अ॒ग्निर्दे॒वता॒ वातो॑ दे॒वता॒ सूर्यो॑ दे॒वता॑ च॒न्द्रमा॑ दे॒वता॒ वस॑वो दे॒वता॑ रु॒द्रा दे॒वता॑दि॒त्या दे॒वता॑ म॒रुतो॑ दे॒वता॒ विश्वे॑दे॒वा देवता॒ बृह॒स्पति॑र्दे॒वतेन्द्रो॑ दे॒वता॒ वरु॑णो दे॒वता॑ ॥ ४॥ ॐ स॒द्योजा॒तं प्र॑पद्या॒मि॒ स॒द्योजा॒ताय॒ वै नमो॒ नमः॑ । भ॒वे भ॑वे॒ नाति॑भवे भवस्व॒ माम् । भ॒वोद्भ॑वाय॒ नमः॑ ॥ ५॥ वा॒म॒दे॒वाय॒ नमो॑ ज्ये॒ष्ठाय॒ नमः॑ श्रे॒ष्ठाय॒ नमो॑ रु॒द्राय॒ नमः॒ काला॑य नमः॒ कल॑विकरणाय॒ नमो॒ बल॑विकरणाय॒ नमो॒ बला॑य॒ नमो॒ बल॑प्रमथनाय॒ नमः॒ सर्व॑भूतदमनाय॒ नमो॑ म॒नोन्म॑नाय॒ नमः॒ ॥ ६॥ अ॒घोरे॑भ्योऽथ॒ घोरे॑भ्यो॒ घोर॒घोर॑तरेभ्यः । स॒र्वेभ्यः सर्व॒ श॑र्वेभ्यो॒ नम॑स्तेऽस्तु रु॒द्ररू॑पेभ्यः ॥ ७॥ (स॒र्वतः॑ शर्व॒ सर्वे॑भ्यो॒) तत्पुरु॑षाय वि॒द्महे॑ महादे॒वाय॑ धीमहि । तन्नो॑ रुद्रः प्रचो॒दया॑त् ॥ ८॥ ईशानस्सर्व॑विद्या॒ना॒मीश्वरः सर्व॑भूता॒नां॒ । ब्रह्माधि॑पति॒र्ब्रह्म॒णोऽधि॑पति॒र्ब्रह्मा॑ शि॒वो मे॑ऽस्तु सदाशि॒वोम् ॥ ९॥ ॐ शि॒वो नामा॑सि॒ स्वधि॑तिस्ते पि॒ता नम॑स्ते अस्तु॒ मा मा॑ हिꣳसीः । निव॑र्तयाम्यायु॑षे॒ऽन्नाद्या॑य॒ प्रजन॑नाय रा॒यस्पोषा॑य सुप्रजा॒स्त्वाय॑ सु॒वीर्या॑य ॥ १०॥ ॐ विश्वा॑नि देव सवितर्दुरि॒तानि॒ परासुव । यद्भ॒द्रं तन्न॒ आसुव ॥ ११॥ ॐ द्यौः शान्ति॑र॒न्तरि॑क्ष॒ꣳ शान्तिः॑ पृथि॒वी शान्ति॒रापः॒ शान्ति॒रोष॑धयः॒ शान्तिः॑ । वन॒स्पत॑यः॒ शान्ति॒र्विश्वे॑दे॒वाः शान्ति॒र्ब्रह्म॒ शान्तिः॒ सर्व॒ꣳ शान्तिः॒ शान्ति॑रे॒व शान्तिः॒ सा मा॒ शान्ति॑रेधि ॥ १२॥ ॐ सर्वेषां वा एष वेदानाꣳरसो यत्सामः । सर्वेषामेवैनमेतद् वेदानाꣳ रसेनाभिषिञ्चति ॥ १३॥ ॐ शान्तिः॒ शान्तिः॒ शान्तिः॑ ॥ अनेन श्री रुद्राभिषेककर्मणा श्री भवानीशङ्कर महारुद्राः प्रीयतां न मम । इति श्रीशुक्लयजुर्वेदीय रुद्राष्टाध्यायी समाप्ता । ॥ ॐ साम्ब सदाशिवार्पणमस्तु ॥
GrahRaj Astrology ज्योतिष-वास्तु-धार्मिकपूजा
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હરિ ૐ આ લેખ સર્વે ભક્તો નું કલ્યાણ અર્થે તેમજ શ્રાવણ માસ માં ભગવાન ની અલગ અલગ ધૂન આરતી  કિર્તન ગાઈ શકે એ હેતુ થી મુકેલ છે.
 વિશેષ પ્રસ્તુત સામગ્રી અમારી ખુદ ની નથી.

सुचना 📵यह लेख पौराणिक ग्रंथों अथवा मान्यताओं पर आधारित है अत: इसमें वर्णित सामग्री के वैज्ञानिक प्रमाण होने का आश्वासन नहीं दिया जा सकता। विस्तार में आप कार्यालय पर संपर्क करें।
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Thursday, 24 July 2025

।। રાશિ અનુસાર શિવ અભિષેક ।।


*🔅🕉🔅શિવલિંગ અને રાશિ અનુસાર રુદ્રા અભિષેક વિશેષ મહત્વ🔅🕉🔅*

*🕉શ્રાવણ મહિના સાથે દેવોના દેવ મહાદેવનો ગાઢ સંબંધ છે. પુરાણો અનુસાર, શ્રાવણ મહિનામાં શિવજીની પૂજા અને અભિષેક કરવાથી ઝડપથી અને અનેકગણું ફળ મળે છે. આ કારણે જ ભક્તો શ્રાવણ મહિનાના સોમવારે શિવજીની ભક્તિમાં વધુ લીન થાય છે અને તેમને રિઝવવા માટે વિશેષ ઉત્સાહિત રહે છે. શ્રાવણ મહિનામાં શિવજી જ સૃષ્ટિનું સંચાલન રકે છે. શ્રાવણ મહિનામાં ભગવાન શિવજીની પૂજા -આરાધનાનું આગવું મહાત્મ્ય છે. શ્રાવણમાં દરરોજ ભગવાન શિવની પૂજા કરવાથી ઘણું પુણ્ય પ્રાપ્ત થાય છે. ભગવાન શિવ ખૂબ જ ભોળા છે અને ઝડપથી પ્રસન્ન થઇ જાય છે. તેમના ભક્તોને ક્યારેય પણ કોઇપણ પ્રકારનો ભય કે સંકટ સતાવતા નથી. ખાસ કરીને શ્રાવણ મહિનામાં ભક્તો તેમની પૂજા કરીને પોતાની મનોકામનાઓ પૂર્ણ કરી શકે છે. અહીં અમે તમારી રાશિ અનુસાર ભગવાન શિવની પૂજા-વિધિ જણાવી રહ્યા છીએ જે આ શ્રદ્ધાપૂર્વક કરીને ભગવાન શિવજીના આશીર્વાદ પ્રાપ્ત કરી શકો છો.🕉*
GrahRaj Astrology - જ્યોતિષ-વાસ્તુ-ધાર્મિકપૂજા

*શાસ્ત્રોમાં શિવલિંગના ઘણાં પ્રકાર જણાવવામાં આવ્યાં છે.*

*જો તમે તમારી મનોકામના મુજબ તે શિવલિંગની પૂજા કરશો તો તમારી દરેક મનોકામના જલ્દી જ પૂર્ણ થઇ શકે છે.*

*તો ચાલે આજે અમે તમને આ લેખમાં જણાવીએ કઇ મનોકામના માટે કયા શિવલિંગની પૂજા કરવી જોઇએ.*

🔱ભૂમિ ખરીદવાની મનોકામનાની પૂર્તિ કરવા માટે ફૂલોથી શિવલિંગનું નિર્માણ કરી તેની પૂજા કરવી જોઇએ.

🕉ખાંડથી શિવલિંગ બનાવીને તેની પૂજા કરવાથી માનસિક તથા પારિવારિક સુખ-શાંતિની પ્રાપ્તિ થાય છે.

🔱વાંસના અંકુરથી શિવલિંગ બનાવીને તેની પૂજા કરવાથી વંશમાં વૃદ્ધિ થાય છે.

🕉ચાંદીથી બનેલાં શિવલિંગની પૂજા અને રૂદ્રાભિષેક તેવા લોકોને ફાયદો આપે છે તે આર્થિક રૂપથી પરેશાન હોય છે.

🔱મુક્તિની ઇચ્છા રાખનાર વ્યક્તિઓએ આંબળાને પીસીને તેના દ્વારા શિવલિંગનું નિર્માણ કરવું જોઇએ. આ શિવલિંગનો રૂદ્રાભિષેક શિવલોકમાં સ્થાન અપાવે છે.

🕉ધન તથા સુખ સમૃદ્ધિ માટે સોના અથવા પીત્તળના શિવલિંગની પૂજા વિશેષ ફળદાયી માનવામાં આવે છે.

🔱પારદથી બનેલાં શિવલિંગની પૂજા કરવાથી ધન, સુખ તથા મોક્ષની પ્રાપ્તિ થાય છે. આ માટે જો અન્ય પ્રકારના શિવલિંગને બનાવવામાં મુશ્કેલી આવી રહી છે તો તમે પારદના બનેલાં શિવલિંગનો પ્રયોગ કરી શકો છો.

🕉ઘાસને પીસીને શિવલિંગ બનાવવું અને તેનો રૂદ્રાભિષેક કરશો તો અકાળ મૃત્યુનો ભય દૂર થઇ જાય છે. આ શિવલિંગ આયુષ્યમાં વૃદ્ધિ કરે છે.

🔱લાલ અને સફેદ આંકડાના ફૂલથી ભગવાન શિવનું પૂજન કરવાથી ભોગ અને મોક્ષની પ્રાપ્તિ થાય છે.

🕉ચમેલીના ફૂલથી ભગવાન શિવનું પૂજન કરવાથી વાહન સુખ પ્રાપ્ત થાય છે.

🔱અળસીના ફૂલોથી શિવનું પૂજન કરવાથી મનુષ્ય ભગવાન વિષ્ણુને પ્રિય બને છે.

🕉શમીના પાનથી પૂજન કરવા પર મોક્ષની પ્રાપ્તિ થાય છે.

🔱મોગરાના ફૂલથી પૂજન કરવાથી સુંદર અને સુશીલ પત્ની પ્રાપ્ત થાય છે.

🕉જો જૂહીના ફૂલથી શિવનું પૂજન કરવામાં આવે તો ઘરમાં ક્યારેય અનાજની કમી આવતી નથી.

🔱કરેણના ફૂલથી શિવ પૂજન કરવામાં આવે તો નવા વસ્ત્રોની પ્રાપ્તિ થાય છે.

🕉પારિજાતકના ફૂલોથી પૂજન કરવામાં આવે તો સુખ-સંપત્તીમાં વૃદ્ધિ થાય છે.

🔱ધતૂરાના ફૂલથી પૂજન કરવામાં આવે તો ભગવાન શંકર સુયોગ્ય પુત્ર પ્રદાન કરે છે, જે આગળ જઇને કુળનું નામ રોશન કરે છે.

🕉લાલ ડંઠલવાળા(મૂળ અને ડૂંડાની વચ્ચેનો ભાગ) ધતૂરો પૂજામાં શુભ માનવામાં આવે છે.

🔱દૂર્વાથી પૂજન કરવામાં આવે તો આયુષ્યમાં વૃદ્ધિ થાય છે.

*શિવપુરાણ મુજબ જાણો ભગવાન શિવને કયો રસ (પ્રવાહી) અર્પણ કરવાથી તેનું શું ફળ પ્રાપ્ત થાય છે.*

🔅તાવ આવવા પર ભગવાન શિવને જળધારા અર્પણ કરવાથી ઝડપથી લાભ પ્રાપ્ત થાય છે.

🔅સુખ અને સંતાનની વૃદ્ધિ માટે પણ જળધારા દ્વારા શિવની પૂજા ઉત્તમ જણાવવામાં આવી છે.

🔅 નપુંસક વ્યક્તિ જો ઘીથી ભગવાન શિવનો અભિષેક કરે, બ્રાહ્મણોને ભોજન કરાવે તથા સોમવારે વ્રત કરે તો તેની સમસ્યાનું નિદાન તરત જ આવી જાય છે.

🔅 તેજ મગજ પ્રાપ્ત કરવા માટે ખાંડ મિક્સ કરેલ દૂધ ભગવાન શિવને અર્પણ કરવું.

🔅સુગંધિત તેલથી ભગવાન શિવનો અભિષેક કરવાથી સમૃદ્ધિમાં વૃદ્ધિ થાય છે.

🔅 શિવલિંગ પર શેરડીનો રસ અર્પણ કરવામાં આવે તો દરેક પ્રકારના આનંદની પ્રાપ્તિ થાય છે.

🔅 શિવને ગંગાજળ અર્પણ કરવાથી ભોગ અને મોક્ષ બંન્નેની પ્રાપ્તિ થાય છે.

🔅મધથી ભગવાન શિવનો અભિષેક કરવાથી ટીબીના રોગમાં આરામ મળે છે.

*ભગવાન શિવને પ્રસન્ન કરવાના ઉપાય.*

↘ભગવાન શિવને ચોખા અર્પણ કરવાથી ધનની પ્રાપ્તિ થાય છે.

↘ તલ અર્પણ કરવાથી પાપનો નાશ થાય છે.

↘જવ અર્પણ કરવાથી સુખમાં વૃદ્ધિ થાય છે.

↘ ઘઉં અર્પણ કરવાથી સંતાન વૃદ્ધિ થાય છે.

*આ બધા જ અનાજ ભગવાનને અર્પણ કર્યા પછી ગરીબોમાં વહેંચવા જોઇએ. આવું કરવાથી શુભફળની પ્રાપ્તિ થાય છે.*
GrahRaj Astrology - જ્યોતિષ- વાસ્તુ- ધાર્મિકપૂજા

*મેષ રાશિ*

મેષ રાશિના જાતકોએ ભગવાન શિવજીને મધ અને દુધ મિશ્ર કરીને અભિષેક કરવો જોઇએ અને લાલ ચંદન તેમજ લાલ રંગના ફુલ ચડાવવા જોઇએ. આ જાતકોએ નાગેશ્વરાય નમ:નો જાપ કરવો. આ રીતે પૂજા કરવાથી વ્યાવસાયિક પ્રતિષ્ઠા વધે છે અને તેમણે કરેલો પુરુષાર્થ સાર્થક નીવડે છે. આનાથી આર્થિક બાબતોમાં પણ પ્રગતિ થાય છે.
GrahRaj Astrology
*વૃષભ રાશિ*

વૃષભ રાશિના જાતકો જો દહીંથી શિવજીનો અભિષેક કરે તો તેમને ઘણું શુભ ફળ મળે છે. સાથે જ ભગવાન શિવની સ્તુતિ પણ કરવી, ચમેલીના ફુલ ચડાવવા અને રુદ્રાષ્ટાકર પાઠ કરવો તેમજ બિલ્વપત્ર ચડાવવાથી માંગલિક અને સાંસ્કૃતિક ઉત્સવમાં ભાગ લઇ શકશો. તમારી વ્યાવસાયિક પ્રતિષ્ઠામાં પણ વધારો થશે.

*મિથુન રાશિ*

મિથુન રાશિના જાતકોએ શેરડીના રસથી ભગવાન શિવનો અભિષેક કરવો જોઇએ. તેનાથી અજ્ઞાન ભય અને ક્રોધમાંથી મુક્તિ મળશે. કામકાજના સ્થળે અધિકારીઓ તરફથી સારો સહયોગ મળશે. ભગવાન શિવને ધતુરો અને ભાંગ ચડાવવા. સાથે શિવજીના પંચાક્ષરી મંત્ર “ॐ નમઃ શિવાય”નો જાપ કરવો.
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*કર્ક રાશિ*

કર્ક રાશિના જાતકોને ભાંગ, સાકર મિશ્રિત દુધથી ભગવાન શિવનો અભિષેક કરવાથી શુભ ફળની પ્રાપ્તિ થાય છે. રુદ્રાષ્ટાધ્યાયીનો પાઠ પણ કરવો જોઇએ. સાથે આંકડાના ફુલ શિવજીને અર્પણ કરવા જોઇએ. તેનાથી સ્વાસ્થ્યમાં સારો લાભ થશે. બિનજરૂરી ગુંચવણોમાંથી પણ રાહત મળશે. શિક્ષણના કાર્યોમાં સારી સફળતા પ્રાપ્ત થશે.

*સિંહ રાશિ*

સિંહ રાશિના જાતકોએ લાલ ચંદનના પાણીથી શિવજીનો અભિષેક કરવો જોઇએ. ભગવાન શિવને કરેણના લાલ રંગના ફુલ અર્પણ કરવાથી તેમજ શિવ ચાલીસાનો પાઠ કરવાથી સારો ફાયદો થશે. તેનાથી શાસત-સત્તાની બાબતોમાં સહયોગ મળશે. રાજકીય મહત્વાકાંક્ષાઓ પણ પૂરી થઇ શકે છે. વ્યાવસાયિક પ્રતિષ્ઠામાં વધારો થશે. GrahRaj Astrology

*કન્યા રાશિ*

કન્યા રાશિના જાતકોએ ભાંગ મિશ્રિત જળથી ભગવાન શિવનો અભિષેક કરવો જોઇએ. તેનાથી મોટા વડીલો તેમજ કોઇ અધિકારીઓ તરફથી સારો સહકાર મળે અને તેમના કારણે સફળતા હાંસલ થાય. આ રાશિના શિવભક્તોએ ભગવાન શિવને બિલ્વપત્ર, ધતુરો, ભાંગ વગેરે ચડાવવા જોઇએ અને પંચાક્ષરી મંત્ર “ॐ નમઃ શિવાય”નો જાપ કરવો.

*તુલા રાશિ*

તુલા રાશિના જાતકોએ ભગવાન શિવને ગાયના ઘી અને અત્તર અથવા સુગંધિત તેલ અથવા સાકર મિશ્ર કરેલા દુધથી અભિષેક કરવો જોઇએ. કેસર મિશ્રિત મીઠાઈનો ભોગ ચડાવવો જોઇએ. ભગવાન શિવના સહસ્ત્રનામનો જાપ કરવો. તેનાથી તમારી રચનાત્મકતામાં વધારો થશે અને તમારા પ્રયાસો ફળીભુત થશે. શૈક્ષણિક સ્પર્ધાના ક્ષેત્રમાં પણ અપેક્ષિત ફળની પ્રાપ્તિ થશે.

*વૃશ્ચિક રાશિ*

વૃશ્ચિક રાશિના જાતકોએ મધ ને પાણીનું મિશ્રણ કરીને શિવજીનો અભિષેક કરવો જોઈએ. તેનાથી શિક્ષણ ક્ષેત્રે કરેલો પરિશ્રમ સાર્થક નીવડશે. ધન, યશ, કિર્તીમાં વધારો થસે. શાસત અને સત્તાનો સહયોગ રહેશે. જો મધ ના હોય તો સાકર મિશ્ર કરીને પણ અભિષેક કરી શકાય. ભગવાન શિવને ગુલાબનું ફુલ અને બિલ્વપત્રનું મૂળ ચડાવો. રુદ્રાષ્ટકનો પાઠ કરો.

*ધન રાશિ*

ધન રાશિના જાતકોએ કેસર મિશ્રિત દુધથી ભગવાન શિવનો અભિષેક કરવો જોઈએ. સાથે જ ભગવાના શિવના પંચાક્ષરી મંત્ર “ॐ નમઃ શિવાય”નો જાપ કરવો. તમે ભગવાનને પીળા ફુલો અર્પણ કરો અને ખીરનો ભોગ ધરાવી શકો ચો. શિવાષ્ટકનો પાઠ કરવો જોઇએ. આમ કરવાથી સંતાન પ્રાપ્તિની મનોકામના પૂર્ણ થશે અને ભૌતિક ચીજોની પ્રાપ્તિ થશે. GrahRaj Astrology

*મકર રાશિ*

મકર રાશિના જાતકોએ તેલના તલથી શિવજીનો અભિષેક કરવો જોઇએ જેથી ભૌતિક સુખ-સંપદામાં વધારો થશે. ભગવાન શિવજીને બિલ્વ પત્ર, ધતુરાનું ફુલ, ભાંગ અને અષ્ટગંધ ચડાવવાથી તેમજ પાર્વતીનાથાય નમઃનો જાપ કરવાથી તમને ઘણું શુભ ફળ પ્રાપ્ત થશે.

*કુંભ રાશિ*

કુંભ રાશિના જાતકોએ સમગ્ર શ્રાવણ મહિના દરમિયાન નાળીયેરનું પાણી, શેરડીનો રસ, સરસવના તેલથી શિવજીનો અભિષેક કરવો અને શિવાષ્ટકનો પાઠ કરવો જોઇએ. તેનાથી ટૂંક સમયમાં જ સંતાન પ્રાપ્તિની મનોકામના પૂર્ણ થાય છે અને સંતાનનું જીવન સુખમય બને છે. તેનાથી પારિવારિક જીવનમાં પણ સુખ-શાંતિ વ્યાપે છે.

*મીન રાશિ*

મીન રાશિના જાતકોએ પાણીમાં કેસરનું મિશ્રણ કરીને ભગવાન શિવજીનો અભિષેક કરવો જોઈએ. શિવજી પર પંચામૃત, દહીં, દુધ અને પીળા રંગના ફુલો ચડાવવા જોઇએ તેમજ ચંદનની માળાથી 108 વખત પંચાક્ષરી મંત્ર “ॐ નમઃ શિવાય”નો જાપ કરવો. તેનાથી પારિવારિક અને વ્યાવસાયિક પ્રતિષ્ઠામાં ઘણો વધારો થાય છે.
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*સૂચન📵:*

*આ લેખ પૌરાણિક ગ્રંથો અથવા માન્યતાઓ પર આધારિત છે અને તેથી તેમાં વર્ણવેલ સામગ્રીના વૈજ્ઞાનિક પુરાવાની ખાતરી આપી શકાતી નથી. વિગતવાર તમે ઓફિસ પર સંપર્ક કરો.*

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         શાસ્ત્રી એચ.એચ. રાજગુરુ
    
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